उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
रमा का फ़र्जी पिट गया, रमेश ने बड़े जोर से कहकहा मारा। रमेश ने रोष के साथ कहा–अगर आप चुपचाप खेलते हैं तो खेलिए, नहीं मैं जाता हूँ मुझे बातों में लगाकर सारे मुहरे उड़ा लिये !
रमेश–अच्छा साहब, अब बोलूँ तो जबान पकड़ लीजिए। यह लीजिए शह ! तो तुम कल अर्ज़ी दे दो। उम्मीद तो है, तुम्हें यह जगह मिल जायेगी; मगर जिस दिन जगह मिले, मेरे साथ रात भर खेलना होगा।
रमानाथ–आप तो दो ही मातों में रोने लगते हैं।
रमेश–अजी वह दिन गये, जब आप मुझे मात दिया करते थे। आजकल चन्द्रमा बलवान हैं। इधर मैंने एक मन्त्र सिद्ध किया है। क्या मजाल कि कोई मात दे सके। फिर शह !
रमानाथ–जी तो चाहता है, दूसरी बाज़ी मात देकर जाऊँ मगर देर होगी।
रमेश–देर क्या होगी ! अभी तो नौ बजे हैं। खेल लो, दिल का अरमान निकल जाय। यह शह और मात !
रमानाथ–अच्छा कल की रही। कल ललकार कर पाँच मातें न दी हो तो कहियेगा।
रमेश–अजी जाओ भी, तुम मुझे क्या मात दोगे ! हिम्मत हो तो अभी सही !
रमानाथ–अच्छा आइए, आप भी क्या कहेंगे; मगर मैं पाँच बाजियों से कम न खेलूँगा।
रमेश–पाँच नहीं, तुम दस खेलो जी। रात तो अपनी है। तो चलो फिर खाना खा लें ! तब निश्चित होकर बैठें। तुम्हारे घर कहलाये देता हूँ कि आज यहीं सोयेंगे, इन्तजार न करें।
दोनों ने भोजन किया और फिर शतरंज पर बैठे। पहली बाज़ी में ग्यारह बज गये। रमेश बाबू की जीत रही। दूसरी बाज़ी भी उन्हीं के हाथ रही। तीसरी बाज़ी खत्म हुई, तो दो बज गये।
रमानाथ–अब तो मुझे नींद आ रही है।
रमेश–तो मुँह धो डालो, बरफ रक्खी हुई है। मैं पाँच बाजियाँ खेले बगैर सोने न दूँगा।
रमेश बाबू को यह विश्वास हो रहा था कि आज मेरा सितारा बुलन्द है। नहीं तो रमा को लगातार तीन मात देना आसान न था। वह समझ गये थे, इस वक़्त चाहे जितनी बाज़ियाँ खेलूँ, जीत मेरी ही होगी; मगर जब चौथी बाज़ी हार गये, तो यह विश्वास जाता रहा। उलटे यह भय हुआ कि कहीं लगातार हारता न जाऊँ। बोले–अब तो सोना चाहिए।
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