उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
रमा ने एक मिनट में मुँह धोया, पाँच मिनट में भोजन किया और चटपट रमेश के साथ दफ्तर चला।
रास्ते में रमेश ने मुस्कराकर कहा–घर पर क्या बहाना करोगे, कुछ सोच रक्खा है?
रमा–कह दूँगा, रमेश बाबू ने आने नहीं दिया।
रमेश–मुझे गालियाँ दिलाओगे और क्या? फिर कभी न आने पाओगे।
रमानाथ–ऐसा स्त्री भक्त नहीं हूँ। हाँ, यह तो बताइए मुझे अर्ज़ी लेकर तो साहब के पास न जाना पड़ेगा?
रमेश–और क्या तुम समझते हो, घर बैठे जगह मिल जायगी? महीनों दौड़ना पड़ेगा, महीनों ! बीसियों सिफारिशें लानी पड़ेंगी। सुबह शाम हाज़िरी देनी पड़ेगी। क्या नौकरी मिलना आसान है?
रमानाथ–तो मैं ऐसी नौकरी से बाज़ आया। मुझे तो अर्ज़ी लेकर जाते ही शर्म आती है। खुशामदें कौन करेगा। पहले मुझे क्लर्कों पर बड़ी हँसी आती थी; मगर वही बला मेरे सिर पड़ी। साहब डाँट-वाँट तो नहीं बतायेंगे?
रमेश–बुरी तरह डाँटता है, लोग उसके सामने जाते हुए काँपते हैं।
रमानाथ–तो फिर मैं घर जाता हूँ। यह मुझसे न बरदाश्त होगा।
रमेश–पहले सब ऐसे ही घबराते हैं, मगर सहते-सहते आदत पड़ जाती है। तुम्हारा दिल धड़क रहा होगा कि न जाने कैसी बीतेगी। जब मैं नौकर हुआ, तो तुम्हारी ही उम्र मेरी भी थी, और शादी हुए तीन ही महीने हुए थे। जिस दिन मेरी पेशी होने वाली थी, ऐसा घबराया हुआ था मानों फाँसी पाने जा रहा हूँ; मगर तुम्हारे डरने का कोई कारण नहीं हैं। मैं सब ठीक कर दूँगा।
रमानाथ–आपको तो बीस-बाईस साल नौकरी करते हो गये होंगे।
रमेश–पूरे पच्चीस हो गये साहब ! बीस बरस तो स्त्री का देहान्त हुए हो गये। दस रुपये पर नौकर हुआ था।
रमानाथ–आपने दूसरी शादी क्यों नहीं की? तब तो आपकी उम्र पच्चीस से ज्यादा न रही होगी।
रमेश ने हँसकर कहा–बरफी खाने के बाद गुड़ खाने को किसका जी चाहता है? महल का सुख भोगने के बाद झोपड़ा किसे अच्छा लगता है? प्रेम आत्मा को तृप्त कर देता है। तुम तो मुझे जानते हो, अब तो बूढ़ा हो गया हूँ; लेकिन मैं तुमसे सच कहता हूँ, इस विधुर जीवन में मैंने किसी स्त्री की ओर आँख तक नहीं उठायी। कितनी ही सुन्दरियाँ देखीं, कई बार लोगों ने विवाह के लिए घेरा भी; लेकिन कभी इच्छा ही न हुई। उस प्रेम की मधुर स्मृतियों में मेरे लिए प्रेम का सजीव आनन्द भरा हुआ है।
यों बातें करते हुए, दोनों आदमी दफ्तर पहुँच गये।
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