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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव

[११]

महाशय दयानाथ को जब रमा के नौकर हो जाने का हाल मालूम हुआ, तो बहुत खुश हुए। विवाह होते ही वह इतनी जल्दी चेतेगा इसकी उन्हें आशा न थी। बोले–जगह तो अच्छी है। ईमानदारी से काम करोगे, तो किसी अच्छे पद  पर पहुँच जाओगे। मेरा यही उपदेश है कि पराये पैसे को हराम समझना।

रमा के जी में आया कि साफ कह दूँ–अपना उपदेश अपने ही लिए रखिए, यह मेरे अनुकूल नहीं है। मगर इतना बेहया न था।

दयानाथ ने फिर कहा–यह जगह तो तीस रुपये की थी, तुम्हें बीस ही क्यों मिले?

रमानाथ–नये आदमी को पूरा वेतन कैसे देते, शायद साल-छः महीने में बढ़ जाय। काम बहुत है।

दयानाथ–तुम जावन आदमी हो, काम से न घबड़ाना चाहिए।

रमा ने दूसरे दिन नया सूट बनवाया और फैशन की कितनी ही चीजें खरीदीं। ससुराल से मिले हुए रुपये कुछ बच रहे थे। कुछ मित्रों से उधार ले लिये। वह साहबी ठाठ बनाकर सारे दफ्तर पर रोब जमाना चाहता था। कोई उससे वेतन पूछेगा नहीं, महाजन लोग उसका ठाठ-बाठ देखकर सहम जायेंगे। वह जानता था, अच्छी आमदनी तभी हो सकती है जब अच्छा ठाठ हो। सड़क के चौकीदार को एक पैसा काफी समझा जाता है; लेकिन उसकी जगह सारजन्ट हो, तो किसी की हिम्मत ही न पड़ेगी कि उसे पैसा दिखाये। फटेहाल भिखारी के लिए चुटकी बहुत समझी जाती है; लेकिन गेरुए धारण करने वाले बाबाजी को लजाते-लजाते भी एक रुपया देना ही पड़ता है। भेष और भीख में सनातन से मित्रता है।

तीसरे दिन रमा कोट-पैंट पहनकर और हैट लगाकर निकला, तो उसकी शान ही कुछ और हो गयी। चपरासियों ने झुककर सलाम किये, रमेश बाबू से मिलकर जब वह अपने काम का चार्ज लेने आया, तो देखा एक बरामदे में फटी हुई मैली दरी पर एक मियाँ साहब सन्दूक पर रजिस्टर फैलाये बैठे हैं और व्यापारी लोग उन्हें चारों तरफ से घेरे खड़े हैं। सामने गाड़ियों, ठेलों और इक्कों का बाजार लगा हुआ है। सभी अपने-अपने काम की जल्दी मचा रहे हैं। कहीं लोगों में गाली-गलौच हो रही हैं, कहीं चपरासियों में हँसी-दिल्लगी। सारा काम बड़े ही अव्यवस्थित रूप से हो रहा है। उस फटी हुई मैली दरी पर बैठना रमा को अपमानजनक जान पड़ा। वह सीधे रमेश बाबू से जाकर बोला–क्या मुझे भी इसी मैली दरी पर बिठाना चाहते हैं? एक अच्छी सी मेज़ और कई कुर्सियाँ भिजवाइए और चपरासियों को हुक्म दीजिए कि एक आदमी से ज्यादा मेरे सामने न आने पावे। रमेश बाबू ने मुस्कराकर मेज़ और कुर्सियाँ भिजवा दीं। रमा शान से कुर्सी पर बैठा। बूढ़े मुंशीजी उसकी उच्छृंखलता पर दिल में हँस रहे थे। समझ गये, अभी नया जोश है, नयी सनक है। चार्ज दे दिया। चार्ज में था ही क्या, केवल आज की आमदनी का हिसाब समझा देना था। किस जिन्स पर किस हिसाब से चुंगी ली जाती है, इसकी छपी हुई तालिका मौजूद थी, रमा आध घण्टे में अपना काम समझ गया। बूढे़ मुंशीजी ने यद्यपि खुद ही यह जगह छोड़ी थी; पर इस वक्त जाते हुए उन्हें दुःख हो रहा था। इसी जगह पर वह तीस साल से बराबर बैठते चले आते थे इसी जगह की बदौलत उन्होंने धन और यश और दोनों ही कमाया था। उसे छोड़ते हुए क्यों न दुःख होता। चार्ज देकर जब वह बिदा होने लगे तो रमा उनके साथ जीने के नीचे तक गया। खाँ साहब उसकी इस नम्रता से प्रसन्न हो गये। मुस्कराकर बोले–हर एक बिल्टी पर एक आना बँधा हुआ है, खुली हुई बात है। लोग शौक से देते हैं। आप अमीर आदमी हैं; मगर रस्म न बिगाड़ियेगा। एक बार कोई रस्म टूट जाती है, तो उसका बाँधना मुश्किल हो जाता है। इस एक आने में आधा चपरासियों का हक है। जो बड़े बाबू पहले थे, वह पच्चीस रुपये महीना लेते थे; मगर यह कुछ नहीं लेते।

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