उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
रमा ने अरुचि प्रकट करते हुए कहा–गंदा काम है, मैं सफाई से काम करना चाहता हूँ।
बूढ़े मियाँ ने हँसकर कहा–अभी गंदा मालूम होता है, लेकिन फिर इसी में मजा आयेगा।
खाँ साहब को बिदा करके रमा अपनी कुर्सी पर आ बैठा और एक चपरासी से बोला–इन लोगों से कहो, बरामदे के नीचे चले जायें। एक-एक करके नम्बरवार आवें, एक कागज पर सबके नाम नम्बरवार लिख दिया करों।
एक बनिया, जो दो घण्टे से खड़ा था, खुश होकर बोला–हाँ सरकार, यह बहुत अच्छा होगा।
रमानाथ–जो पहले आवे, उसका काम पहले होना चाहिए। बाकी लोग अपना नम्बर आने तक बाहर रहें। यह नहीं कि सबसे पीछे वाले शोर मचाकर पहले आ जायें और पहले वाले खड़े मुँह ताकते रहें।
कई व्यापारियों ने कहा–हाँ बाबूजी, यह इन्तजाम हो जाये, तो बहुत अच्छा हो, भभ्भड़ में बड़ी देर हो जाती है।
इतना नियन्त्रण रमा का रोब जमाने के लिए काफी था। वणिक-समाज में आज ही उसके रंग-ढंग की आलोचना और प्रशंसा होने लगी। किसी बड़े कालेज के प्रोफेसर को इतनी ख्याति उम्र भर में न मिलती।
दो-चार दिन के अनुभव से ही रमा को सारे दाँव-घात मालूम हो गये। ऐसी-ऐसी बातें सूझ गयीं जो खाँ साहब को ख्वाब में भी न सूझी थीं। माल की तौल गिनती और परख में इतनी धाँधली थी जिसकी कोई हद नहीं। जब इस धाँधली से व्यापारी लोग सैकड़ों की रकम डकार जाते हैं, तो रमा बिल्टी पर एक आना लेकर ही क्यों सन्तुष्ट हो जाय, जिसमें आध आना चपरासियों का है। माल की तौल और परख में दृढ़ता से नियमों का पालन करके वह धन और कीर्ति दोनों ही कमा सकता है। यह अवसर वह क्यों छोड़ने लगा? विशेषकर जब बड़े बाबू उसके गहरे दोस्त थे। रमेश बाबू इस नये रंगरूट की कार्य-पटुता पर मुग्ध हो गये। उसकी पीठ ठोंककर बोले–कायदे के अन्दर रहो और जो चाहो करो। तुम पर आँच तक न आने पावेगी।
रमा की आमदनी तेज़ी से बढ़ने लगी। आमदनी के साथ प्रभाव भी बढ़ा। सूखी कलम घिसने वाले दफ्तर के बाबुओं की जब सिरगेट, पान चाय या जलपान की इच्छा होती, तो रमा के पास चले आते, उस बहती गंगा में सभी हाथ धो सकते थे। सारे दफ्तर में रमा की सराहना होने लगी। पैसे को तो वह ठीकरा समझता है। क्या दिल है कि वाह ! और जैसे दिल है, वैसी ही जबान भी। मालूम होता है, नस नस में शराफत भरी हुई है। बाबुओं का जब यह हाल था, तो चपरासियों और मुहर्रिरों का पूछना ही क्या? सब-के-सब रमा के बिना दामों गुलाम थे। उन गरीबों की आमदनी ही नहीं, प्रतिष्ठा भी खूब बढ़ गयी थी। जहाँ गाड़ीवान तक फटकार दिया करते थे, वहाँ अब अच्छे-अच्छे की गर्दन पकड़कर नीचे ढकेल देते थे। रमानाथ की तूती बोलने लगी।
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