उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
रमानाथ–लेना देना क्या है, जरा भाव-ताव देखूँगा।
रमेश–मालूम होता है, घर में फटकार पड़ी है।
रमानाथ–जी बिलकुल नहीं। वह तो जेवरों का नाम तक नहीं लेती। मैं कभी पूछता भी हूँ, तो मना करती है; लेकिन अपना कर्तव्य भी तो कुछ है। जब से गहने चोरी चले गये हैं एक चीज़ भी नहीं बनी।
रमेश–मालूम होता है, कमाने का ढंग आ गया। क्यों न हो, कायस्थ के बच्चे हो। कितने रुपये जोड़ लिये।
रमानाथ–रुपये किसके पास हैं, वादे पर लूँगा।
रमेश–इस खब्त में न पड़ो। जब तक रुपये हाथ में न हों, बाजार की तरफ जाओ ही मत। गहनों से तो बुड्ढे नयी बीवियों का दिल खुश किया करते हैं। बेचारों के पास गहनों के सिवा होता ही क्या है। जवानों के लिए और बहुत से लटके हैं। या मैं चाहूँ, तो दो चार हज़ार का माल दिलवा सकता हूँ, मगर भई कर्ज़ की लत बुरी है।
रमानाथ–मैं दो-तीन महीने में सब रुपये चुका दूँगा। अगर मुझे इसका विश्वास न होता, तो मैं जिक्र ही न करता।
रमेश–तो दो-तीन महीने और सब्र क्यों नहीं कर जाते? कर्ज से बड़ा पाप दूसरा नहीं। न इससे बड़ी विपत्ति दूसरी है। जहाँ एक बार धड़का खुला कि तुम आये दिन सराफ की दूकान पर खड़े नजर आओगे। बुरा न मानना। में जानता हूँ, तुम्हारी आमदनी अच्छी है, पर भविष्य के भरोसे पर और चाहे जो काम करो, लेकिन कर्ज कभी मत लो। गहनों का मरज न जाने इस दरिद्र देश में कैसे फैल गया। जिन लोगों को भोजन का ठिकाना नहीं, वे भी गहनों के पीछे प्राण देते हैं। हर साल अरबों रुपये केवल सोना-चाँदी खरीदने में व्यय हो जाते हैं। संसार के और किसी देश में इन धातुओं की इतनी खपत नहीं। तो बात क्या है? उन्नत देशों में धन व्यापार में लगता है।
जिससे लोगों की परवरिश होती है, और धन बढ़ता है यहाँ धन श्रृंगार में खर्च होता है, उसमें उन्नति और उपकार की जो दो महान शक्तियाँ हैं, उन दोनों ही का अन्त हो जाता है। बस यही समझ लो कि जिस देश के लोग जितने ही मूर्ख होंगे, वहाँ जे़वरों का प्रचार भी उतना ही अधिक होगा। यहाँ तो खैर नाक कान छिदाकर ही रह जाते हैं; मगर कई ऐसे देश भी हैं, जहाँ ओठ छेदकर लोग गहने पहनते हैं।
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