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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


रमानाथ–ऐसी चीजें तो शायद यहाँ बन भी न सकें, मगर कल मैं जरा सराफे की सैर करूँगा।

जालपा ने पुस्तक बन्द करते हुए करुण स्वर में कहा–इतने रुपये जाने तुम्हारे पास कब तक होंगे? उँह, बनेंगे-बनेंगे, नहीं कोई गहनों के बिना मरा जाता है।

रमा को आज इसी उधेड़बुन में बड़ी रात तक नींद न आयी। ये जड़ाऊ कगंन इन गोरी-गोरी कलाइयों पर कितने खिलेंगे। यह मोह स्वप्न देखते-देखते उसे न जाने कब नींद आ गयी।

[१२]

दूसरे दिन सवेरे ही रमा ने रमेश बाबू के घर का रास्ता लिया। उसके यहाँ भी जनमाष्टमी में झाँकी होती थी। उन्हें स्वयं तो इससे कोई अनुराग न था; पर उनकी स्त्री उत्सव मनाती थी, उसी की यादगार में अब तक यह उत्सव मनाते जाते थे। रमा को देखकर बोले–आओ जी, रात क्यों नहीं आये? मगर यहाँ गरीबों के घर क्यों आते। सेठजी की झाँकी कैसे छोड़ देते। खूब बहार रही होगी !

रमानाथ–आपकी-सी सजावट तो न थी, हाँ और सालों से अच्छी थी। कई कत्थक और वेश्याएँ भी आयी थीं। मैं तो चला आया था; मगर सुना रात भर गाना होता रहा।

रमेश–सेठजी ने तो वचन दिया था कि वेश्याएँ न आने पावेंगी, फिर यह क्या किया। इन मूर्खों के हाथों हिन्दू-धर्म का सर्वनाश हो जायगा। एक तो वेश्याओं का नाम यों भी बुरा उस पर ठाकुरद्वारे में ! छिः छिः, न जाने इन गधों को कब अक्ल आवेगी।

रमानाथ–वेश्याएँ न हों, तो झाँकी देखने जाये ही कौन? सभी तो आपकी तरह योगी और तपस्वी नहीं हैं।

रमेश–मेरा वश चले, तो मैं कानून से यह दुराचार बन्द कर दूँ। खैर, फुरसत हो तो आओ एक-आध बाज़ी हो जाय।

रमानाथ–और आया किसलिए हूँ; मगर आज आपको मेरे साथ ज़रा सराफे तक चलना पड़ेगा। यों कई बड़ी बड़ी कोठियों से मेरा परिचय है; मगर आपके रहने से कुछ और ही बात होगी।

रमेश–चलने को चला चलूँगा; मगर इस विषय में मैं बिल्कुल कोरा हूँ। न कोई चीज़ बनवायी, न खरीदी। तुम्हें क्या कुछ लेना है?

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