उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
वह घर पहुँचा तो दयानाथ बैठे हुक्क पी रहे थे। वह उस कमरे न गया। उनकी आँख बचाकर अन्दर जाना चाहता था कि उन्होंने टोका–इस वक्त कहाँ गये थे?
रमा ने उन्हें कुछ जवाब न दिया। कहीं वह अखबार सुनाने लगे, तो घण्टों की खबर लेंगे। सीधा अन्दर जा पहुँचा। जालपा द्वार पर खड़ी उसकी राह देख रही थी, तुरन्त उसके हाथ से छतरी ले ली और बोली–तुम तो बिलकुल भीग गये। कहीं ठहर क्यों न गये।
रमानाथ–पानी का क्या ठिकाना, रात भर बरसता रहे।
यह कहता हुआ रमा ऊपर चला गया। उसने समझा था जालपा भी पीछे-पीछे आती होगी, पर वह नीचे बैठी अपने देवरों से बातें कर रही थी, मानों उसे गहनों की याद ही नहीं है। जैसे वह बिल्कुल भूल गयी है कि रमा सराफे से आया है।
रमा ने कपड़े बदले और मन में झुँझलाता हुआ नीचे चला आया। उसी समय दयानाथ भोजन करने आ गये। सब लोग भोजन करने बैठ गये। जालपा ने जब्त तो किया था, पर इस उत्कण्ठा की दशा में आज उससे कुछ खाया न गया। जब वह ऊपर पहुँची, तो रमा चारपाई पर लेटा हुआ था। उसे देखते ही कौतुक से बोला–आज सराफे का जाना तो व्यर्थ ही गया। हार कहीं तैयार ही न था। बनाने को कह आया हूँ।
जालपा की उत्साह से चमकती हुई मुख-छवि मलिन पड़ गयी, बोली-वह तो पहले ही जानती थी। बनते-बनते पाँच छः महीने तो लग ही जायेंगे।
रमानाथ–नहीं जी, बहुत जल्द बना देगा, कसम खा रहा था।
जालपा–उँह, जब चाहे दे !
उत्कंठा की चरम सीमा ही निराशा है। जालपा मुँह फेरकर लेटने जा रही थी, कि रमा ने जोर से कहकहा मारा। जालपा चौंक पड़ी। समझ गयी रमा ने शरारत की थी। मुस्कराती हुई बोली–तुम भी बड़े नटखट हो। क्या लाये?
रमानाथ–कैसा चकमा दिया?
जालपा–यह तो मरदों की आदत ही है, तुमने नयी बात क्या की?
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