उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
जालपा दोनों आभूषणों को देखकर निहाल हो गयी। हृदय में आनन्द की लहरें-सी उठने लगीं। वह मनोभावों को छिपाना चाहती थी कि रमा उसे ओछी न समझे; लेकिन एक-एक अंग खिला जाता था। मुस्कराती हुई आँखें, दमकते हुए कपोल और खिले हुए अधर उसका भरम गँवाये देते थे। उसने हार गले में पहना, शीशफूल जूड़े में सजाया, और हर्ष से उन्मत्त होकर बोली–तुम्हें आशीर्वाद देती हूँ, ईश्वर तुम्हारी सारी मनोकमानाएँ पूरी करे।
आज जालपा की वह अभिलाषा पूरी हुई, जो बचपन ही से उसकी कल्पनाओं का एक स्वप्न, उसकी आशाओं का क्रीड़ास्थल बनी हुई थी। आज उसकी वह साध पूरी हो गयी। यदि मानकी यहाँ होती, तो वह सबसे पहले यह हार दिखाती और कहती–तुम्हारा हार तुम्हें मुबारक हो।
रमा पर घड़ों नशा चढ़ा हुआ था। आज उसे अपना जीवन सफल जान पड़ा। अपने जीवन में आज पहली बार उसे विजय का आनन्द प्राप्त हुआ।
जालपा ने पूछा–जाकर अम्माजी को दिखा आऊँ?
रमा ने नम्रता से कहा–अम्मा को क्या दिखाने जाओगी। ऐसी कौन सी बड़ी चीजें हैं।
जालपा–अब मैं तुमसे साल-भर तक और किसी चीज़ के लिए न कहूँगी। इसके रुपये देकर ही मेरे दिल का बोझ हलका होगा।
रमा गर्व से बोला–रुपये की क्या चिन्ता हैं ही कितने !
जालपा–ज़रा अम्मा जी को दिखा आऊँ, देखें क्या कहती हैं।
रमानाथ–मगर यह न कहना, उधार लाये हैं।
जालपा इस तरह दौड़ी हुई नीचे गयी, मानों उसे वहाँ कोई निधि मिल जायगी।
आधी रात बीत चुकी थी। रमा आनन्द की नींद सो रहा था। जालपा ने छत पर आकर एक बार आकाश की ओर देखा। निर्मल चाँदनी छिटकी हुई थी–वह कार्तिक की चाँदनी जिसमें संगीत की शान्ति है, शान्ति का मधुर्य, और माधुर्य का उन्माद। जालपा ने कमरे में आकर अपनी सन्दूकची खोली और उसमें से वह काँच का चन्द्रहार निकाला जिसे एक दिन पहनकर उसने अपने को धन्य माना था। पर अब इस नये चन्द्रहार के सामने उसकी चमक उसी भाँति मन्द पड़ गयी थी, जैसे इस निर्मल चन्द्रज्योति के सामने तारों का आलोक। उसने उस नकली हार को तोड़ डाला और उसके दानों को नीचे गली में फेंक दिया, उसी भाँति जैसे पूजन समाप्त हो जाने के बाद कोई उपासक मिट्टी की मूर्तियों को जल में विसर्जित कर देता है।
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