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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव

[१४]

उस दिन से जालपा के पति-स्नेह में सेवा-भाव का उदय हुआ। वह स्नान करने जाता, तो उसे अपनी धोती चुनी हुई मिलती। आले पर तेल और साबुन भी रक्खा हुआ पाता। जब दफ्तर जाने लगता, तो जालपा उसके कपड़े लाकर सामने रख देती। पहले पान माँगने पर मिलते थे, अब जबरदस्ती खिलाये जाते थे। जालपा उसका रुख देखा करती। उसे कुछ कहने की जरूरत न थी। यहाँ तक कि जब वह भोजन करने बैठता, तो वह पंखा झला करती। पहले वह बड़ी अनिच्छा से भोजन बनाने जाती थी और उस पर भी बेगार-सी टालती थी। अब बड़े प्रेम से रसोई में जाती। चीजें अब भी वही बनती थी; पर उसका स्वाद बढ़ गया था। रमा को इस मधुर स्नेह के सामने वह दो गहने बहुत ही तुच्छ जँचते थे।

उधर जिस दिन रमा ने गंगू की दूकान से गहने खरीदे उसी दिन दूसरे सराफों को भी उसके आभूषण-प्रेम की सूचना मिल गयी। रमा जब उधर से निकलता तो दोनों तरफ से दूकानदार उठ-उठकर उसे सलाम करते–आइए बाबूजी, पान तो खाते जाइए। दो एक चीजें हमारी दूकान से तो देखिए।

रमा का आत्म-संयम उसकी साख को और भी बढ़ाता था यहाँ तक की एक दिन एक दलाल रमा के घर आ पहुँचा, और उसके नहीं-नहीं करने पर भी अपनी सन्दूकची खोल ही दी।

रमा ने उससे पीछा छुड़ाने के लिए कहा–भाई इस वक्त मुझे कुछ नहीं लेना है। क्यों अपना और मेरा समय नष्ट करोगे। दलाल ने बड़े विनीत भाव से कहा–बाबूजी, देख तो लीजिए। पसन्द आये तो लीजियेगा, नहीं तो न लीजियेगा। देख लेने में तो कोई हर्ज नहीं है। आखिर रईसों के पास न जायँ, तो किसके पास जायँ। औरों ने आपसे गहरी रकमें मारीं हमारे भाग्य में भी बदा होगा; तो आपसे चार पैसा पा जायेंगे। बहूजी और माईजी को दिखा लीजिए। मेरा मन तो कहता है कि आज आप ही के हाथों से बोहनी होगी।

रमानाथ–औरतों के पसन्द की न कहो, चीजें अच्छी होंगी ही। पसन्द आते क्या देर लगती है, लेकिन भाई इस वक्त हाथ खाली है।

दलाल हँसकर बोला–बाबूजी, बस ऐसी बात कह देते हैं कि वाह ! आपका हुक्म हो जाय तो हजार-पाँच सौ आपके ऊपर निछावर कर दें। हम लोग आदमी का मिजा़ज देखते हैं बाबूजी। भगवान् ने चाहा तो आज में सौदा करके ही उठूँगा।

दलाल ने सन्दूकची से दो चीजें निकाली, एक तो नये फैशन का जड़ाऊ कंगन था और दूसरा कानों का रिंग। दोनों ही चीजें अपूर्व थीं। ऐसी चमक थी, मानों दीपक जल रहा हो। दस बजे थे, दयानाथ दफ्तर जा चुके थे, वह भी भोजन करने जा रहा था। समय बिलकुल न था, लेकिन इन दोनों चीजों को देखकर उसे किसी बात की सुध ही न रही। दोनों केस लिये हुए घर में आया। उसके हाथ में केस देखते ही दोनों स्त्रियाँ टूट पड़ी और उन चीजों को निकाल-निकालकर देखने लगी। उनकी चमक-दमक ने उन्हें ऐसा मोहित कर लिया कि गुण-दोष की विवेचना करने की उनमें शक्ति ही न रही।

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