उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
जालपा–उधार भी देगा, तो सूद तो लगा ही लेगा?
रमानाथ–तो लौटा दूँ? एक बात चटपट तय कर डालो। लेना हो, ले लो, न लेना हो तो लौटा दो। मोह और दुविधे में न पड़ो।
जालपा को यह स्पष्ट बातचीत इस समय बहुत कठोर लगी। रमा के मुँह से उसे ऐसी आशा न थी। इन्कार करना उसका काम था, रमा को लेने के लिए आग्रह करना चाहिए था। जागेश्वरी की ओर लालायित नेत्रों से देखकर बोली–लौटा दो। रात-दिन के तकाजे कौन सहेगा।
वह केसों में बन्द करने ही वाली थी कि जागेश्वरी ने कंगन उठाकर पहन लिया, मानो एक क्षण भर पहनने से ही उसकी साध पूरी हो जायगी। फिर मन में इस ओछेपन पर लज्जित होकर वह उसे उतारना ही चाहती थी कि रमा ने कहा–अब तुमने पहन लिया है अम्मा तो पहने रहो। मैं तुम्हें भेंट करता हूँ। जागेश्वरी की आँखें सजल हो गयीं। जो लालसा आज तक पूरी न हो सकी, वह आज रमा की मातृभक्ति से पूरी हो रही थी; लेकिन क्या वह अपना प्रिय पुत्र पर ऋण का इतना भारी बोझ रख देगी? अभी वह बेचारा बालक है, उसकी सामर्थ्य ही क्या? न जाने रुपये जल्द हाथ आयें या देर में। दाम भी तो नहीं मालूम। अगर ऊँचे दामों का हुआ, तो बेचारा देगा कहाँ से? उसे कितने तकाजे़ सहने पड़ेंगे और कितना लज्जित होना पड़ेगा। कातर स्वर में बोली–नहीं बेटा, मैंने यों ही पहन लिया था। ले जाओ, लौटा दो।
माता का उदास मुख देखकर रमा का हृदय मातृप्रेम से हिल उठा। क्या ऋण के भय से वह अपनी त्यागमूर्ति माता की इतनी सेवा भी न कर सकेगा? माता के प्रति उसका कुछ कर्तव्य भी तो है? बोला–रुपये बहुत मिल जायेंगे अम्मा तुम इसकी चिन्ता मत करो।
जागेश्वरी ने बहू की ओर देखा। मानों कह रही थी कि रमा मुझ पर कितना अत्याचार कर रहा है।
जालपा उदासीन भाव से बैठी थी। कदाचित् उसे भय हो रहा था कि माता जी यह कंगन ले न लें। मेरा कंगन पहन लेना बहूँ को अच्छा नहीं लगा, इसमें जागेश्वरी को सन्देह नहीं रहा। उसने तुरंत कंगन उतार डाला, और जालपा की ओर बढ़कर बोली–मैं अपनी ओर से तुम्हें भेंट करती हूँ मुझे जो कुछ पहनना ओढ़ना था, ओढ़-पहन चुकी। अब ज़रा तुम पहनो, देखूँ।
जालपा को इसमें ज़रा भी सन्देह न था कि माताजी के पास रुपये की कमी नहीं। वह समझी शायद आज वह पसीज गयी हैं और कंगन के रुपये दे देंगी। एक क्षण पहले उसने समझा था कि रुपये रमा को देने पड़ेंगे, इसीलिए इच्छा रहने पर भी वह उसे लौटा देना चाहती थी। जब माताजी उसका दाम चुका रही थीं, तो वह क्यों इन्कार करती; मगर ऊपरी मन से बोली–रुपये न हों, तो रहने दीजिए अम्माजी, अभी कौन जल्दी है?
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