उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
रमा ने कुछ चिढ़कर कहा–तो तुम यह कंगन ले रही हो?
जालपा–अम्माजी नहीं मानती तो मैं क्या करूँ?
रमा–और ये रिंग इन्हें भी क्यों नहीं रख लेतीं?
जालपा–जाकर दाम तो पूछ जाओ।
रमा ने अधीर होकर कहा–तुम इन चीजों को लेकर जाओ, तुम्हें दाम से क्या मतलब ! रमा ने बाहर आकर दलाल से दाम पूछा, तो सन्नाटे में आ गया। कंगन सात सौ के थे, और रिंग डेढ़ सौ के। उसका अनुमान था कि कंगन अधिक-से-अधिक तीन सौ के होंगे और रिंग चालीस-पचास रुपये के। पछताये कि पहले ही दाम क्यों न पूछ लिये, नहीं तो इन चीजों को घर में ले जाने की नौबत ही क्यों आती? फेरते हुए शर्म आती थी; मगर कुछ भी हो, फेरना तो पड़ेगा ही। इतना बड़ा बोझ वह सिर पर नहीं ले सकता। दलाल से बोला–बड़े दाम हैं भाई, मैंने तो तीन-चार सौ की भीतर ही आँका था। दलाल का नाम चरन दास था। बोला–दाम में एक कौड़ी फरक पड़ गया सरकार, तो मुँह न दिखाऊँ। धनीराम की कोठी का तो माल है, आप चलकर पूछ लें। दमड़ी रुपये की दलाली अलबत्ता मेरी है। आपकी मरजी हो दीजिए या न दीजिए।
रमानाथ–तो भाई, इन दामों की चीजों तो इस वक्त हमें नहीं लेनी हैं।
चरनदास–ऐसी बात न कहिए बाबूजी। आपके लिए इतने रुपये कौन सी बड़ी बात है। दो महीने भी माल चल जाय, तो इसके दूने हाथ आ जायेंगे। आपसे बढ़कर कौन शौकीन होगा। यह सब रईसों के पसन्द की चीजें हैं। गँवार लोग इनकी कद्र क्या जानें !
रमानाथ–साढ़े आठ सौ बहुत होते हैं भई।
चरन–रुपयों का मुँह न देखिए बाबूजी, जब बहूजी पहनकर बैठेंगी तो एक निगाह में सारे रुपये तर जायेंगे !
रमा को विश्वास था कि जालपा गहनों का यह मूल्य सुनकर आप ही बिचक जायगी। दलाल से और ज्यादा बातचीत न की। अन्दर जाकर बड़े जोर से हँसा और बोला–आपने इस कंगन का क्या दाम समझा था माजी?
जागेश्वरी कोई जवाब देकर बेवकूफ न बनना चाहती थी–इन जड़ाऊ चीजों में नाप-तौल का तो कुछ हिसाब रहता नहीं, जितने में तय हो जाए, वही ठीक है।
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