उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
जालपा–अच्छा चलो मैं ही कहे देती हूँ।
रमानाथ–वाह, फिर तो सब काम ही बन गया।
रमा पीछे दबक गया। जालपा दालान में आकर बोली–जरा यहाँ आना जी, ओ सराफ ! लूटने आये हो, या माल बेचने आये हो?
चरनदास बरमदे से उठकर द्वार पर आया और बोला–क्या हुक्म है सरकार?
जालपा–माल बेचने आते हो, या लूटने आते हो? सात सौ रुपये कंगन के माँगते हो?
चरनदास–सात सौ तो उसकी कारीगरी का दाम है हुजूर !
जालपा–अच्छा तो जो उस पर सात सौ निछावर कर दे, उसके पास ले जाओ। रिंग के डेढ़ सौ कहते हो, लूट है क्या?
चरनदास–बहूजी, आप तो अन्धेर करती हैं। कहाँ साढ़े आठ सौ और कहाँ सात सौ?
जालपा–तुम्हारी खुशी अपनी चीज़ ले जाओ।
चरनदास–इतने बड़े दरबार में आकर चीज़ लौटा ले जाऊँ? आप यो ही पहने ! दस-पाँच रुपये की बात होती, तो अपनी जुबान न फेरता आपसे झूठ नहीं कहता बहूजी, इन चीजों पर पैसा रुपया नफा है। उसी एक पैसे में दूकान का भाड़ा, बट्टा-खाता, दस्तूरी, दलाली सब समझिए। एक बात ऐसी समझकर कहिए कि हमें भी चार पैसे मिल जायें। सवरे-सवेरे लौटना न पड़े।
जालपा–कह दिये, वही सात सौ।
चरन ने ऐसा मुँह बनाया, मानों वह किसी धर्म संकट में पड़ गया है। फिर बोला–सरकार है तो घाटा ही, पर आपकी बात नहीं टालते बनती। रुपये कब मिलेंगे?
जालपा–जल्दी ही मिल जायेंगे।
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