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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


जालपा अन्दर जाकर बोली–आखिर दिया कि नहीं सात सौ में? डेढ़ सौ साफ उड़ाये लिये जाता था। मुझे पछतावा हो रहा है कि कुछ और कम क्यों न कहा। ये लोग इस तरह ग्राहकों को लूटते हैं।

रमा इतना भारी बोझ लेते घबरा रहा था; लेकिन परिस्थिति ने कुछ ऐसा रंग पकड़ा है कि बोझ उस पर लद ही गया।

जालपा तो खुशी की उमंग में दोनों चीज़ें लिये ऊपर चली गयी; पर रमा सिर झुकाये चिन्ता में डूबा खड़ा था। जालपा ने उसकी दशा जानकर भी इन चीजों को क्यों ठुकरा नहीं दिया, क्यों जोर देकर नहीं कहा–मैं न लूँगी, क्यों दुविधा में पड़ी रही। साढ़े पाँच सौ भी चुकाना मुश्किल था, इतने और कहाँ से आयेंगे। असल में गलती मेरी ही है। मुझे दलाल को दरवाजे से ही दुत्कार देना चाहिए था।

लेकिन उसने मन को समझाया। यह अपने ही पापों का तो प्रायश्चित है। फिर आदमी इसीलिए तो कमाता है। रोटियों के लाले थोड़े ही थे?

भोजन करके जब रमा ऊपर कपड़े पहनने गया तो जालपा आइने के सामने खड़ी कानों में रिंग पहन रही थी। उसे देखते ही बोली–आज किसी अच्छे का मुँह देखकर उठी थी। दो चीजें मुफ्त हाथ आ गयीं।

रमा ने विस्मय से पूछा–मुफ्त क्यों? रुपये न देने पड़ेंगे?

जालपा–रुपये तो अम्माजी देंगी।

रमानाथ–क्या कुछ कहती थीं?

जालपा–उन्होंने मुझे भेंट दिये हैं, तो रुपये कौन देगा?

रमा ने उसके भोलेपन पर मुसकराकर कहा–यह समझकर तुमने यह चीजें ले लीं? अम्मा को देना होता, तो उसी वक्त दे देतीं जब गहने चोरी गये थे। क्या उनके पास रुपये न थे?

जालपा असमंजस में पड़कर बोली–तो मुझे क्या मालूम था। अब भी तो लौटा सकते हो। कह देना, जिसके लिए लिया था, उसे पसन्द नहीं आया।

यह कह कर उसने तुरंत कानों से रिंग निकाल लिये। कंगन भी उतारे और दोनों चीजें केस में रखकर उसकी तरफ इस तरह बढ़ायी, जैसे कोई बिल्ली चूहे से खेल रही हो। वह चूहे को अपनी पकड़ से बाहर नहीं होने देती। उसे छोड़कर भी नहीं छोड़ती। हाथों को फैलाने का साहस नहीं होता था। क्या उसके हृदय की भी यही दशा न थी? उसके मुख पर हवाइयाँ उड़ रहीं थीं। क्यों वह रमा की ओर न देखकर भूमि की ओर देख रही थी? क्यों सिर ऊपर न उठाती थी? किसी संकट से बच जाने में जो हार्दिक आनन्द होता है, वह कहाँ था? उसकी दशा ठीक उस माता की-सी थी, जो अपने बालक को विदेश जाने की अनुमति दे रही हो। वही विवशता, वही कातरता, वही ममता इस समय जालपा के मुख पर उदय हो रही थी।

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