उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
|
8 पाठकों को प्रिय 438 पाठक हैं |
ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
[५]
नाटक उस वक्त ‘पास’ होता है, जब रसिक-समाज उसे पसन्द कर लेता है। बरात का नाटक उस वक्त पास होता है जब राह चलते आदमी उसे पसन्द कर लेते हैं। नाटक की परीक्षा चार-पाँच घण्टे तक होती रहती है बरात की परीक्षा के लिए केवल इतने ही मिनटों का समय होता है। सारी सजावट, सारी दौड़-धूप और तैयारी का निबटारा पाँच मिनटों में हो जाता है। अगर सबके मुँह से ‘वाह-वाह’ निकल गया तो तमाशा पास, नहीं तो फेल। रुपया, मेहनत, फिक्र, सब अकारथ। दयानाथ का तमाशा पास हो गया। शहर में वह तीसरे दर्जे में आता, गाँव में अव्वल दर्जे में आया। कोई बाजों की धों-धों पों-पों सुनकर मस्त हो रहा था, कोई मोटर को आँखें फाड़-फाड़कर देख रहा था। कुछ लोग फुलवारियों के तख्त देखकर लोट-लोट हो जाते थे। आतिशबाजी ही मनोरंजन का केन्द्र थी। हवाइयाँ जब सन्न से ऊपर जातीं और आकाश में लाल, हरे, नीले, पीले कुमकुम से बिखर जाते; जब चर्खियाँ छूटतीं और उनमें नाचते हुए मोर निकल आते, तो लोग मंत्रमुग्ध से हो जाते थे। वाह, क्या कारीगरी है।
जालपा के लिए इन चीजों का लेशमात्र भी आकर्षण न था। हाँ, वह वर को एक आँख देखना चाहती थी, वह भी सबसे छिपकर; पर उस भीड़-भाड़ में ऐसा अवसर कहाँ। द्वारचार के समय उसकी सखियाँ उसे छत पर खींच ले गयीं और उसने रमानाथ को देखा। उसका सारा विराग, सारी उदासीनता सारी मनोव्यथा मानो छूमन्तर हो गयी थी। मुँह पर हर्ष की लालिमा छा गयी। अनुराग स्फूर्ति का भंडार है।
द्वारचार के बाद बरात जनवासे चली गयी। भोजन की तैयारियाँ होने लगीं। किसी ने पूरियाँ खायीं, किसी ने उपलों पर खिचड़ी पकायी। देहात के तमाशा देखने वालों के मनोरंजन के लिए नाच-गाना होने लगा।
दस बजे सहसा फिर बाजे बजने लगे। मालूम हुआ कि चढ़ाव आ रहा है। बरात में हर एक रस्म डंके की चोट पर अदा होती है। दूल्हा कलेवा करने आ रहा है, बाजे बजने लगे। समधी मिलने आ रहा है, बाजे बजने लगे। चढ़ाव ज्योंही पहुँचा, घर में हचचल मच गयी। स्त्री-पुरुष, बूढे-जवान, सब चढ़ाव देखने के लिए उत्सुक हो उठे। ज्यों-ही किश्तियाँ मंडप में पहुँची, लोग सब काम छोड़कर देखने दौड़े। आपस में धक्कम-धक्का होने लगा। मानकी प्यास से बेहाल हो रही थी, कण्ठ सूखा जाता था, चढ़ाव आते ही प्यास भाग गयी। दीनदयाल मारे भूख-प्यास के निर्जीव से पड़े थे, यह समाचार सुनते ही सचेत होकर दौड़े। मानकी एक एक चीज को निकाल-निकालकर देखने और दिखाने लगी। वहाँ सभी इस कला के विशेषज्ञ थे। मर्दों ने गहनें बनवाये थे, औरतों ने पहने थे, सभी आलोचना करने लगे। चूहेदन्ती कितनी सुन्दर है, कोई दस तौले की होगी। वाह ! साढ़े ग्यारह तोले से रत्ती भर भी कम निकल जाये, तो कुछ हार जाऊँ। यह शेरदहाँ तो देखो, क्या हाथ की सफाई है ! जी चाहता है कारीगर के हाथ चूम लें। यह भी बारह तोले से कम न होगा। वाह ! कभी देखा भी है, सोलह तोले से कम निकल जाये, तो मुँह न दिखाऊँ। हाँ, माल उतना चोखा नहीं है। यह कंगन तो देखो, बिलकुल पक्की जड़ाई है, कितना बारीक काम है कि आँख नहीं ठहरती। कैसा दमक रहा है। सच्चे नगीने हैं। झूठे नगीनों में यह आब कहाँ ! चीज तो यह गुलबंद है, कितने खूबसूरत फूल हैं ! और उनके बीच के हीरे चमक रहे हैं ! किसी बंगाली सुनार ने बनाया होगा। क्या बंगालियों ने कारीगरी का ठेका ले लिया है, हमारे देश में एक से एक कारीगर पड़े हुए हैं। बंगाली सुनार उनकी क्या बराबरी करेंगे।
|