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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


इसी तरह एक-एक चीज़ की आलोचना होती रही। सहसा किसी ने कहा–चन्द्रहार नहीं  है क्या।

मानकी ने रोनी सूरत बनाकर कहा–नहीं आया।

एक महिला बोली–अरे, चन्द्रहार नहीं आया !

दीनदयाल ने गम्भीर भाव से कहा–और सभी चीजें तो हैं, एक चन्द्रहार ही तो नहीं है।

उसी महिला ने मुँह बनाकर कहा–चन्द्रहार की बात ही और है !

मानकी ने चढ़ाव को सामने से हटाकर कहा–बेचारी के भाग में चन्द्रहार लिखा ही नहीं है।

इस गोलाकार जमघट के पीछे अंधेरे में आशा और आकांक्षा की मूर्ति-सी जालपा भी खड़ी थी। और सब गहनों के नाम कान में आते थे, चन्द्रहार का नाम न आता था। उसकी छाती धक-धक कर रही थी।  चन्द्रहार नहीं है क्या? शायद सबके नीचे हो। इस तरह वह मन को समझाती रही। जब मालूम हो गया, चन्द्रहार नहीं है, तो उसके कलेजे पर चोट सी लग गयी। मालूम हुआ, देह में रक्त की एक बूँद भी नहीं है। मानो उसे मूर्च्छा आ जायेगी। वह उन्माद की सी दशा में अपने कमरे में आयी और फूट-फूटकर रोने लगी। वह लालसा जो आज सात वर्ष हुए, उसके हृदय में अंकुरित हुई थी, जो इस समय पुष्प और पल्लव से लदी खड़ी थी, उस पर वज्रपात हो गया। वहा हरा-भरा लहलहाता हुआ पौधा जल गया–केवल उसकी राख रह गयी। आज ही के दिन पर तो उसके समस्त आशाएँ अवलम्बित थीं। दुर्दैव ने आज वह अवलम्ब भी छीन लिया। उस निराशा के आवेश में उसका ऐसा जी चाहने लगा कि अपना मुँह नोच डाले। उसका बस चलता तो वह चढ़ाव को उठाकर आग में फेंक देती। कमरे में एक आले पर शिव की मूर्ति रखी हुई थी। उसने उसे उठाकर ऐसा पटका, कि उसकी आशाओं की भाँति वह भी चूर-चूर हो गयी। उसने निश्चिय किया कि मैं कोई आभूषण न पहनूँगी। आभूषण पहनने से होता ही क्या है। जो रूप-विहीन हों, वे अपने को गहने से सजायें, मुझे तो ईश्वर ने यों ही सुन्दरी बनाया है, मैं गहने न पहनकर भी बुरी न लगूँगी। सस्ती चीजें उठा लायें; जिसमें रुपये खर्च होते थे, उसका नाम ही न लिया। अगर गिनती ही गिनानी थी, तो इतने ही दामों से इसके दूने गहने आ जाते।

वह इसी क्रोध में भरी बैठी थी कि उसकी तीन सखियाँ आकर खड़ी हो गयीं। उन्होंने समझा था, जालपा को अभी चढ़ाव की कुछ खबर नहीं है। जालपा ने उन्हें देखते ही आँखें पोंछ डाली और मुस्कराने लगी।

राधा मुस्कराकर बोली–जालपा, मालूम होता है, तूने बड़ी तपस्या की थी, ऐसा चढ़ाव मैंने आज तक नहीं देखा था। अब तो तेरी सब साध पूरी हो गयी।

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