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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


जालपा–यह तो बुरी विपत्ति गले पड़ी।

रमानाथ–विपत्ति नहीं है, सिर्फ यही खयाल है कि मेरा मकान इस काम के लायक नहीं। मेज, कुर्सियाँ, चाय के सेट रमेश के यहाँ से माँग लाऊँगा, लेकिन घर के लिए क्या करूँ !

जालपा–क्या यह ज़रूरी है कि हम लोग भी दावत करें?

रमा ने ऐसी भद्दी बात का कुछ उत्तर न दिया। उसे जालपा के लिए एक जूते ही जोड़ी और सुन्दर कलाई की घड़ी की फिक्र पैदा हो गयी। उसके पास कौड़ी भी न थी। उसका खर्च रोज़ बढ़ता जाता था। अभी तक गहनों वालों को एक पैसा देने की नौबत न आयी थी। एक बार गंगू महाराज ने इशारे से तकाजा़ भी किया था, लेकिन यह भी तो नहीं हो सकता कि जालपा फटे हालों चाय-पार्टी में जाय। नहीं, जालपा पर, इतना अन्याय नहीं कर सकता। इस अवसर पर जालपा की रूप-शोभा का सिक्का बैठ जायगा। सभी तो आज चमाचम साड़ियाँ पहने हुए थीं। जड़ाऊ कंगन और मोतियों के हारों की भी कमी न थी; पर जालपा अपने सादे आवरण में उनसे कोसों आगे थी। उसके सामने एक भी नहीं जाँचती थी। यह मेरे पूर्व कर्मों का फल हैं कि मुझे ऐसी सुन्दरी मिली। आखिर यही तो खाने-पहनने और जीवन का आनन्द उठाने के दिन हैं। जब जवानी ही में सुख न उठाया, तो बुढ़ापे में क्या कर लेंगे ! बुढ़ापे में मान लिया धन हुआ ही तो क्या। यौवन बीत जाने पर विवाह किस काम का? साड़ी और घड़ी लाने की उसे धुन सवार हो गयी। रात भर तो उसने सब्र किया। दूसरे दिन दोनों चीजें लाकर ही दम लिया।

जालपा ने झुँझलाकर कहा–मैंने तो तुमसे कहा था कि इन चीजों का काम नहीं है। डेढ़ सौ से कम की न होंगी?

रमानाथ–डेढ़ सौ ! इतना फजूल खर्ची मैं नहीं हूँ।

जालपा–डेढ़ सौ से कम की यह चीज़ें नहीं हैं।

जालपा ने घड़ी कलाई में बाँध ली और साड़ी को खोलकर मंत्रमुग्ध नेत्रों से देखा।

रमानाथ–तुम्हारी कलाई पर यह घड़ी कैसी खिल रही है ! मेरे रुपये वसूल हो गये।

जालपा–सच बताओ कितने रुपये खर्च हुए?

रमानाथ–सच बता दूँ? एक सौ पैतीस रुपये। पचहत्तर रुपये की साड़ी दस के जूते और पचास की घड़ी।

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