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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


जालपा ने मुस्कराकर कहा–कहीं बाबूजी देख लें तो?

रमा–तो क्या, कुछ नहीं।

जालपा–मैं तो मारे शर्म के गड़ जाऊँ।

रमा–अभी तो मुझे भी शर्म आयेगी, मगर बाबूजी खुद ही इधर न आयेंगे।

जालपा–और जो कहीं अम्माजी देख लें।

रमा–अम्मा से कौन डरता है, दो दलीलों में ठीक कर दूँगा।

दस पाँच ही दिन में जालपा ने नये महिला-समाज में अपना रंग जमा लिया। उसने इस समाज में इस तरह प्रवेश किया, जैसे कोई कुशल वक्ता पहली बार परिषद् में मंच पर आता है। विद्वान लोग उसकी उपेक्षा करने की इच्छा होने पर भी उसकी प्रतिभा के सामने सिर झुका देते हैं। जालपा भी ‘आयी, देखा और विजय कर लिया।’ उसके सौन्दर्य में वह गरिमा, वह कठोरता, वह शान, वह तेजस्विता थी जो कुलीन महिलाओं के लक्षण हैं। पहले ही दिन एक महिला ने जालपा को चाय का निमन्त्रण दे दिया जालपा इच्छा न रहने पर भी उसे अस्वीकार न कर सकी।

जब दोनों प्राणी वहाँ से लौटे, तो रमा ने चिन्तित स्वर में कहा–तो कल इसकी चाय-पार्टी में जाना पड़ेगा?

जालपा–क्या करती? इन्कार करते भी तो न बनता था !

रमा–तो सबेरे तुम्हारे लिए एक अच्छी सी साड़ी ला दूँ?

जालपा–क्या मेरे पास साड़ी नहीं है, जरा देर के लिए पचास-साठ रुपये खर्च करने से फायदा !

रमानाथ–तुम्हारे पास अच्छी साड़ी कहाँ है। इसकी साड़ी तुमने देखी? ऐसी ही तुम्हारे लिए भी लाऊँगा।

जालपा ने विवशता के भाव से कहा–मुझे साफ कह देना चाहिए था कि फुरसत नहीं है।

रमानाथ–फिर इनकी दावत भी तो करनी पड़ेगी।

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