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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


जालपा को अभी तक सन्देह हो रहा था कि रतन वकील साहब की बेटी है या पत्नी। वकील साहब की उम्र साठ से नीचे न थी। चिकनी चाँद आस-पास के सफेद बालों के बीच में वारनिश की हुई लकड़ी की भाँति चमक रही थी। मूँछ साफ थीं, पर माथे की शिकन और गालों की झुर्रियाँ बतला रही थीं कि यात्री संसार-यात्रा से थक गया है। आरामकुरसी पर लेटे हुए वह ऐसे मालूम होते थे, जैसे बरसों के मरीज़ हों। हाँ, रंग गोरा था जो साठ साल की गरमी-सर्दी खाने पर भी उड़ न सका था। ऊँची नाक थी, माथा और बड़ी-बड़ी आँखें, जिनमें अभिमान भरा हुआ था। उनके मुख से ऐसा भाषित होता था कि उन्हें किसी से बोलना या किसी बात का जवाब देना ही अच्छा नहीं लगता। इसके प्रतिकूल रतन साँवली सुगठित युवती थी, बड़ी मिलनसार जिसे गर्व ने छुआ तक न था। सौन्दर्य का उसके रूप में कोई लक्षण न था। नाक चिपटी हुई थी, मुख गोल आँखें छोटी, फिर भी वह रानी-सी लगती थी। जालपा उसके सामने ऐसी लगती थी, जैसे सूर्यमुखी के सामने जूही का फूल।

चाय आयी। मेवे, फल, मिठाई बर्फ की कुल्फी, सेब मेजों पर सजा दिये गये। रतन और जालपा एक मेज़ पर बैठी। दूसरे मेज़ रमा वकील साहब की थी। रमा मेज़ के सामने जा बैठा; मगर वकील साहब अभी आराम-कुर्सी पर लेटे ही हुए थे।

रमा ने मुस्कराकर वकील साहब से कहा–आप तो आयें।

वकील साहब ने लेटे-लेटे मुस्कराकर कहा–आप शुरू कीजिए, मैं भी आया जाता हूँ।

लोगों ने चाय पी, फल खाये: पर वकील साहब के सामने हँसते-बोलते रमा और जालपा दोनों ही झिझकते थे। जिन्दादिल बूढ़ों के साथ तो सोहबत का आनन्द उठाया जा सकता है, लेकिन ऐसे रूखे, निर्जीव मनुष्य जवान भी हों, तो दूसरों को मुर्दा बना देते हैं। वकील साहब ने बहुत आग्रह करने पर दो घूँट चाय पी। दूर से बैठे तमाशा देखते रहे। इसलिए जब रतन ने जालपा ने कहा–चलो, हम लोग बागीचे की सैर करें, इन दोनों महाशयों को समाज और नीति की विवेचना करने दें, तो मानों जालपा के गले का फन्दा छूट गया। रमा ने पिंजड़े में बन्द पक्षी की भाँति उन दोनों को कमरे से निकलते देखा और एक लम्बी साँस ली। यह जानता कि यहाँ विपत्ति उसके सिर पड़ जायेगी, तो आने का नाम न लेता !

वकील साहब ने मुँह सिकोड़कर पहलू बदला और बोले–मालूम नहीं, पेट में क्या हो गया है, कि कोई चीज हज़म ही नहीं होती। दूध भी हज़म नहीं होता है। चाय को लोग न जाने क्यों इतने शौक से पीते हैं, मुझे तो इसकी सूरत से भी डर लगता है। पीते ही बदन में ऐंठन होने लगती है और आँखों से चिनगारियाँ-सी निकलने लगती हैं।

रमा ने कहा–आपने हाज़मे की कोई दवा नहीं की?

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