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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


वकील साहब ने अरुचि के भाव से कहा–दवाओं पर रत्ती भर भी विश्वास नहीं। इन वैद्यों और डॉक्टरों से ज्यादा बेसमझ आदमी संसार में न मिलेंगे। किसी में निदान की शक्ति नहीं। दो वैद्यों दो डॉक्टरों के निदान कभी न मिलेंगे। लक्षण वही हैं, पर एक वैद्य रक्त दोष बतलाता है, दूसरा पित्तदोष; एक डॉक्टर फेफड़े का सूजन बतलाता है, दूसरा आमाशय का विकार। बस, अनुमान से दवा की जाती है और निर्दयता से रोगियों की गरदन पर छुरी फेरी जाती है। इन डॉक्टरों ने मुझे तो अब तक जहान्नुम पहुँचा दिया होता; पर मैं उनके पंजे से निकल भागा। योगाभ्यास की बड़ी प्रशंसा सुनता हूँ, पर कोई ऐसे महात्मा नहीं मिलते, जिनसे कुछ सीख सकूँ। किताबों के आधर पर कोई क्रिया करने से लाभ के बदले हानि होने का डर रहता है।

यहाँ तो अरोग्य-शास्त्र का खंडन हो रहा था, उधर दोनों महिलाओं में प्रगाढ़ स्नेह की बातें हो रही थीं।

रतन ने मुस्कराकर कहा–मेरे पतिदेव को देखकर तुम्हें बड़ा आश्चर्य हुआ होगा।

जालपा को आश्चर्य ही नहीं, भ्रम भी हुआ था। बोली–वकील साहब का दूसरा विवाह होगा।

रतन–हाँ, अभी पाँच ही बरस तो हुए हैं। इनकी पहली स्त्री को मरे पैंतीस वर्ष हो गये। उस समय इनकी अवस्था कुल पच्चीस साल की थी। लोगों ने समझाया दूसरा विवाह कर लो, पर इनके एक लड़का हो चुका था, विवाह करने से इन्कार कर दिया और तीस साल तक अकेले रहे, मगर आज पाँच वर्ष हुए, जवान बेटे का देहान्त हो गया, तब विवाह करना आवश्यक हो गया। मेरे माँ-बाप न थे। मामा जी ने मेरा पालन किया था। कह नहीं सकती इनसे कुछ ले लिया या इनकी सज्जनता पर मुग्ध हो गये। मैं तो समझती हूँ, ईश्वर की यही इच्छा थी; लेकिन मैं जब से आयी हूँ, मोटी होती चली जाती हूँ। डॉक्टर का कहना है कि तुम्हें सन्तान नहीं हो सकती। बहन मुझे तो सन्तान की लालसा नहीं है, लेकिन मेरे पति मेरी दशा देखकर बहुत दुःखी रहते हैं। मैं ही इनके सब रोगों की जड़ हूँ। आज ईश्वर मुझे एक सन्तान  दे दे, तो इनके सारे रोग भाग जायेंगे। कितना चाहती हूँ कि दुबली हो जाऊँ, गर्म पानी से टब-स्नान करती हूँ, रोज पैदल घूमने जाती हूँ घी, दूध कम खाती हूँ, भोजन आधा कर दिया है, जितना परिश्रम करते बनता है करती हूँ, फिर भी दिन-दिन मोटी ही होती जाती हूँ। कुछ समझ में नहीं आता, क्या करूँ।

जालपा–वकील साहब तुमसे चिढ़ते होंगे

रतन–नहीं बहन, बिल्कुल नहीं, भूलकर भी कभी मुझसे इसकी चर्चा नहीं की। उनके मुँह से एक शब्द भी ऐसा नहीं निकला, जिससे उनकी मनोव्यथा प्रकट होती; पर मैं जानती हूँ,  चिन्ता उन्हें मारे डालती है। अपना कोई बस नहीं चलता है। क्या करूँ मैं जितना चाहूँ खर्च करूँ, जैसे चाहूँ रहूँ, कभी नहीं बोलते। जो कुछ पाते हैं, लाकर मेरे हाथ पर रख देते हैं। समझाती हूँ, अब तुम्हें वकालत करने की क्या जरूरत है, आराम क्यों नहीं करते, पर इनसे घर पर बैठे नहीं रहा जाता। केवल दो चपातियों से नाता है। बहुत जिद की तो दो-चार दाने अंगूर खा लिये। मुझे तो उन पर दया आती है, अपने से जहाँ तक हो सकता है उनकी सेवा करती हूँ। आखिर वह मेरे ही लिए तो अपनी जान खपा रहे हैं।

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