उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
जालपा–ऐसे पुरुष को देवता समझना चाहिए। यहाँ तो एक स्त्री मरी नहीं कि दूसरा ब्याह रच गया। तीस साल अकेले रहना सबका काम नहीं है।
रतन–हाँ बहन, हैं तो देवता ही। अब भी कभी उस स्त्री की चर्चा आ जाती है, तो रोने लगते हैं। तुम्हें उनकी तस्वीर दिखाऊँगी। देखने में जितने कठोर मालूम होते हैं, भीतर से इनका हृदय उतना ही नर्म है। कितने ही अनाथों विधवाओं और गरीबों के महीने बाँध रक्खे हैं। तुम्हारा वह कंगन तो बड़ा सुन्दर है।
जालपा–हाँ, बड़े अच्छे कारीगर का बनाया हुआ है।
रतन–मैं तो यहाँ किसी को जानती ही नहीं। वकील साहब को गहनों के लिए कष्ट देने की इच्छा नहीं होती। मामूली सुनारों से बनवाते डर लगता है न जाने क्या मिला दें। मेरी सपत्नीजी के सब गहने रक्खे हुए हैं, लेकिन वह मुझे अच्छे नहीं लगते। तुम बाबू रमानाथ से मेरे लिए ऐसा ही जोड़ा कंगन बनवा दो।
जालपा–देखिए, पूछती हूँ।
रतन–आज तुम्हारे आने से जी बहुत खुश हुआ। दिन भर अकेली पड़ी रहती हूँ। जी घबड़ाया करता है। किसके पास जाऊँ? किसी से परिचय नहीं और न मेरा मन ही चाहता है कि उनसे मैत्री करूँ ! दो-एक महिलाओं को बुलाया, उनके घर गयी, चाहा कि उनसे बहनापा जोड़ लूँ; लेकिन उनके आचार-विचार देखकर उनसे दूर रहना ही अच्छा मालूम हुआ। दोनों ही मुझे उल्लू बनाकर जटना चाहती थीं। मुझसे रुपये उधार ले गयीं और आज तक दे रही हैं। श्रृंगार की चीजों पर मैंने उनका इतना प्रेम देखा, कि कहते लज्जा आती है। तुम घड़ी-आध-घड़ी के लिए रोज़ चली आया करो बहन।
जालपा–वाह इससे अच्छा और क्या होगा।
रतन–मैं मोटर भेज दिया करूँगी।
जालपा–क्या जरूरत हैं। तागें तो मिलते ही हैं।
रतन–न-जानें क्यों तुम्हें छोड़ने को जी नहीं चाहता। तुम्हें पाकर रमानाथजी अपना भाग्य सराहते होंगे।
जालपा ने मुस्कराकर कहा–भाग्य-वाग्य तो कहीं नहीं सराहते, घुड़कियाँ जमाया करते हैं।
रतन–सच ! मुझे तो विश्वास नहीं आता। लो वह भी तो आ गये। पूछना, ऐसा दूसरा कंगन बनवा देंगे।
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