उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
दयानाथ–मैंने सैकड़ों अँग्रेजों के ड्राइंग-रूम देखे हैं। कहीं आईना नहीं देखा। आईना श्रृंगार के कमरे में रहना चाहिए। यहाँ आईना रखना बेतुकी-सी बात है।
रमेश–मुझे सैकड़ों अँग्रेजों के कमरों को देखने का अवसर तो नहीं मिला है, लेकिन दो-चार जरूर देखे हैं और उनमें आईना लगा हुआ देखा। फिर क्या यह ज़रूरी बात है कि इन ज़रा-ज़रा सी बातों में भी हम अँग्रेजों की नकल करें? हम अँग्रेज नहीं हिन्दुस्तानी हैं। हिन्दुस्तानी रईसों के कमरे में बड़े-बड़े आदमकद आईने रक्खे जाते हैं। यह तो आपने हमारे बिगड़े हुए बाबुओं की-सी बात कही, जो पहनावे में, कमरे की सजावट में, बोली में, चाय और शराब में, चीनी की प्यलियों में:–गरज़ दिखावे की सभी बातों में तो अँग्रेजों का मुँह चिढ़ाते हैं, लेकिन जिन बातों ने अँग्रेजों को अँग्रेज बना दिया है, और जिनकी बदौलत वे दुनिया पर राज्य करते हैं, उनकी हवा तक नहीं छू जाती। क्या आपको भी बुढ़ापे में अँगरेज बनने का शौक चर्राया है?
दयानाथ अँग्रेजों की नकल को बहुत बुरा समझते थे। यह चाय पार्टी भी उन्हें बुरी मालूम हो रही थी। अगर कुछ सन्तोष था, तो यही कि दो-चार बड़े आदमियों से परिचय हो जायेगा। उन्होंने अपनी जिन्दगी में कभी कोट नहीं पहना था। चाय पीते थे, मगर चीनी के सेट की कैद न थी। कटोरा-कटोरी, गिलास, लोटा-तसला किसी से भी आपत्ति न थी; लेकिन इस वक्त उन्हें अपना पक्ष निभाने की पड़ी थी, बोले-हिन्दुस्तानी रईसों के कमरे मेजें कुर्सियाँ नहीं होतीं फर्श होता है। आपने कुर्सी-मेज़ लगाकर इसे अँग्रेजी ढंग पर तो बना दिया, अब आईने के लिए हिन्दुस्तानियों की मिसाल दे रहे हैं। या तो हिन्दुस्तानी रखिए या तो अँग्रेजी। यह क्या कि आधा तीतर आधा बटेर। कोट-पतलून पर चौगोशिया टोपी तो नहीं अच्छी मालूम होती !
रमेश बाबू ने समझा था कि दयानाथ की ज़बान बन्द हो जायेगी, लेकिन यह ज़वाब सुना तो चकराये। मैदान हाथ से जाता हुआ दिखायी दिया। बोले–तो आपने किसी अँग्रेज के कमरे में आईना नहीं देखा? भला ऐसे दस-पाँच अँग्रेजों के नाम तो बताइए? एक आपका वही किरंटा हेड क्लर्क है, उसके सिवा और किसी अँग्रेज के कमरे में तो शायद आपने कदम भी न रक्खा हो। उसी किरंटे को आपने अँग्रेजी रुचि का आदर्श समझ लिया है? खूब ! मानता हूँ।
दयानाथ–यह तो आपकी ज़बान है, उसे किरंटा, चमरेशियन, पिलपिली जो चाहे कहें, लेकिन रंग को छोड़कर वह किसी बात में अँगरेजों से कम नहीं और उसके पहले तो योरपियन था।
रमेश इसका कोई जवाब सोच ही रहे थे कि एक मोटरकार द्वार पर आकर रुकी, और रतनबाई उतरकर बरामदे में आयीं। तीनों आदमी चटपट बाहर निकल आये। रमा को इस वक्त रतन का आना बुरा मालूम हुआ। डर रहा था कि कहीं कमरे में भी न चली आये, नहीं तो सारी कलई खुल जाये। आगे बढ़कर हाथ मिलाता हुआ बोला–आइए यह मेरे पिता हैं, और यह मेरे दोस्त रमेश बाबू हैं, लेकिन उन दोनों सज्जनों ने न हाथ बढ़ाया और न जगह से हिले। सकपकाये से खड़े रहे। रतन ने भी उनसे हाथ मिलाने की ज़रूरत न समझी। दूर ही से उनको नमस्कार करके रमा से बोली:–नहीं, बैठूगी नहीं। इस वक्त फुरसत नहीं है। आपसे कुछ कहना था।
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