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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


जालपा–मैं इसलिए पूछ रही हूँ कि तुम्हारे प्रेम को स्थायी बना सकूँ।

रमानाथ–मैं कुछ नहीं जानता जालपा, ईमान से कहता हूँ। तुममें कोई कमी है, कोई दोष है, यह बात आज तक मेरे ध्यान में नहीं आयी; लेकिन तुमने मुझमें कौन-सी बात देखी? न मेरे पास धन है, न विद्या है, न रूप है। बताओ।?

जालपा–बता दूँ? मैं तुम्हारी सज्जनता पर मोहित हूँ। अब तुमसे क्या छिपाऊँ, जब मैं यहाँ आयी तो यद्यपि तुम्हें अपना पति समझती थी; लेकिन कोई बात कहते या करते समय मुझे चिन्ता होती थी कि तुम उसे पसन्द करोगे या नहीं। यदि तुम्हारे बदले मेरा विवाह किसी दूसरे पुरुष से हुआ होता तो उसके साथ भी मेरा यही व्यवहार होता। यह पत्नी और पुरुष का रिवाजी नाता है, पर अब मैं गोपियो के कृष्ण से भी न बदलूँगी। लेकिन तुम्हारे दिल में अब भी चोर है। तुम अब भी मुझसे किसी-किसी बात में परदा रखते हो !

रमानाथ–यह तुम्हारी केवल शंका है जालपा। मैं दोस्तों से भी कोई दुराव नहीं करता। फिर तुम तो मेरी हृदयेश्वरी हो।

जालपा–मेरी तरफ देखकर बोलो, आँखें नीची करना मर्दो का काम नहीं है !

रमा के जी में एक बार फिर आया कि अपनी कठिनाइयों की कथा कह सुनाऊँ, लेकिन मिथ्या गौरव ने फिर उसकी जबान बन्द कर दी।

जालपा जब उससे पूछती, सराफों को रुपये देते जाते हो या नहीं, तो वह बराबर कहता, हाँ कुछ-न-कुछ हर महीने देता जाता हूँ, पर आज रमा की दुर्बलता ने जालपा के मन में एक सन्देह पैदा कर दिया था। वह उसी सन्देह को मिटाना चाहती थी। ज़रा देर बाद उसने पूछा–सराफों के तो अभी सब रुपये अदा न हुए होंगे?

रमानाथ–अब थोड़े ही बाकी हैं।

जालपा–कितने बाकी होंगे, कुछ हिसाब किताब लिखते हो?

रमानाथ–हाँ, लिखता क्यों नहीं। सात सौ से कुछ कम ही होंगे?

जालपा–तब तो पूरी गठरी है, तुमने कहीं रतन के रुपये तो नहीं दे दिये?

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