लोगों की राय

उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास)

ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

438 पाठक हैं

ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


रमा दिल में काँप रहा था, कहीं जालपा यह प्रश्न न कर बैठे। आखिर उसने यह प्रश्न पूछ ही लिया। उस वक्त भी यदि रमा ने साहस करके सच्ची बात स्वीकार कर ली होती तो शायद उसके संकटों का अंत हो जाता। जालपा एक मिनट तक अवश्य सन्नाटे में आ जाती।  सम्भव है क्रोध और निराशा के आवेश में दो-चार  कटु शब्द मुँह से निकालती, लेकिन फिर शान्त हो जाती। दोनों मिलकर कोई-न-कोई युक्ति सोच निकालते। जालपा यदि रतन से यह रहस्य कह सुनाती, तो रतन अवश्य मान जाती, पर हाय रे आत्मगौरव ! रमा ने बात सुनकर ऐसा मुँह बना लिया, मानो जालपा ने उस पर कोई निष्ठुर प्रहार किया हो। बोला–रतन के रुपये क्यों देता। आज चाहूँ, तो दो-चार का माल ला सकता हूँ। कारीगरों की आदत देर करने की होती ही है। सुनार की खटाई मशहूर है। बस और कोई बात नहीं। दस दिन में या चीज़ लाऊँगा या रुपये वापस कर दूँगा, मगर यह शंका तुम्हें क्यों हुई? परायी रकम भला मैं अपने खर्च में कैसे लाता।

जालपा–कुछ नहीं, मैने यों ही पूछा था।

जालपा को थोड़ी देर में नींद आ गयी; पर रमा फिर उसी उधेड़बुन में पड़ा। कहाँ से रुपये लाये। अगर वह रमेश बाबू से साफ-साफ कह दे तो वह किसी महाजन से रुपया दिला देंगे; लेकिन वह उनसे किसी तरह न कह सकेगा। उसमें इतना साहस न था।

उसने प्रातःकाल नाश्ता करके दफ्तर की राह ली। शायद वहाँ कुछ प्रबन्ध हो जाये। कौन प्रबन्ध करेगा, इसका उसे ध्यान न था। जैसे रोगी वैद्य के पास संतुष्ट हो जाता है, पर यह नहीं जानता, मैं अच्छा हूँगा या नहीं। यही दशा इस समय रमा की थी। दफ्तर में चपरासी के सिवा और कोई न था। रमा रजिस्टर खोलकर अंको की जाँच करने लगा। कई दिनों से मीज़ान नहीं दिया गया था; पर बड़े बाबू के हस्ताक्षर मौजूद थे। अब मीज़ान दिया, तो ढाई हजार निकले। एकाएक उसे एक बात सूझी। क्यों न ढाई हज़ार की जगह मीज़ान में दो हजार लिख दूँ। रसीद बही की जाँच कौन करता है। अगर चोरी पकड़ भी गयी, तो कह दूँगा, मीज़ान लगाने में गलती हो गयी। मगर इस विचार को उसने मन में टिकने न दिया। इस भय से, कहीं चित्त चंचल न हो जाये, उसने पेंसिल के अंकों पर रोशनाई फेर दी, और रजिस्टर को दराज़ में बन्द करके इधर-उधर घूमने लगा।

इक्की-दुक्की गाड़ियाँ आने लगीं। गाड़ीवालों ने जो देखा, बाबू साहब आज यहीं हैं तो सोचा जल्दी से चुंगी देकर छुट्टी पा जायँ। रमा ने इस कृपा के लिए दस्तूरी की दूनी रकम वसूल की, और गाड़ीवानों ने शौक से दी क्योंकि यही मंडी का समय था और बाहर-एक बजे तक चुंगीघर से फुरसत पाने की दशा में चौबीस घंटे का हर्ज होता था। मण्डी दस-ग्यारह बजे के बाद बन्द हो जाती थी, दूसरे दिन का इन्तजार करना पड़ता था। अगर भाव रुपये में आध पाव भी गिर गया, तो सैकड़ों के मत्थे गयी। दस-पाँच रुपये का बल खा जाने में उन्हें क्या आपत्ति हो सकती थी। रमा को आज यही नयी बात मालूम हुई। सोचा आखिर सुबह को मैं घर ही पर तो बैठा रहता हूँ। अगर यहाँ आकर बैठ जाऊँ तो रोज दस-पाँच रुपये हाथ आ जायँ। फिर तो छः महीने में यह सारा झगड़ा साफ हो जाये। मान लो रोज़ यह चाँदी न होगी, पन्द्रह न सही, दस मिलेंगे, पाँच मिलेंगे। अगर सुबह को रोज़ पाँच रुपये मिल जायँ और इतने ही दिन भर में और मिल जायँ, तो पाँच-छः महीनें में मैं ऋण से मुक्त हो जाऊँ। उसने दराज खोलकर रजिस्टर निकाला। यह हिसाब लगा लेने के बाद अब रजिस्टर में हेर फेर कर देना उसे इतना भयंकर न जान पड़ा। नया रंगरूट तो पहले बन्दूक की आवाज से चौक पड़ता है, आगे चलकर गोलियों की वर्षा में भी नहीं घबड़ाता।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book