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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


पर रतन ज़रा भी न पिघली। तिनककर बोली–अच्छा ! अभी महीना भर और लगेगा। ऐसी कारीगरी है कि तीन महीने में न हुई ! आप उससे कह दीजिएगा मेरे रुपये वापस कर दें आशा के कंगन देवियाँ पहनती होंगी, मेरे लिए ज़रूरत नहीं।

रमानाथ–एक महीना न लगेगा, मैं जल्दी ही बनवा दूँगा। एक महीना तो मैंने अन्दाज़न कह दिया था। अब थोड़ी ही कसर रह गयी है। कई दिन तो नगीने तलाश करने में लग गये।

रतन–मुझे कंगन पहनना ही नहीं है भाई। आप मेरे रुपये लौटा दीजिए बस। सुनार मैंने भी बहुत देखे हैं। आपकी दया से इस वक्त भी तीन जोड़े कंगन मेरे पास होंगे, पर ऐसी धाँधली कहीं नहीं देखी।

धाँधली के शब्द पर रमा तिलमिला उठा–धाँधली नहीं मेरी हिमाकत कहिए। मुझे क्या ज़रूरत थी कि अपनी जान संकट में डालता। मैंने तो पेशगी रुपये इसलिए दे दिये कि सुनार खुश होकर जल्दी बना देगा। अब आप रुपये माँग रही हैं, सराफ रुपये नहीं लौटा सकता।

रतन ने तीव्र नेत्रों से देखकर कहा–क्यों, रुपयें क्यों न लौटायेगा !

रमानाथ–इसलिए कि जो चीज़ आपके लिए बनायी है, उसे वह कहाँ बेचता फिरेगा। सम्भव है, साल-छः महीनें में बिक सके। सबकी पसन्द एक-सी तो नहीं होती।

रतन ने त्योरियाँ चढ़ाकर कहा–मैं कुछ नहीं जानती, उसने देर की है, उसका दण्ड भोगे। मुझे कल या तो कंगन ला दीजिए या रुपये। आपसे यदि सराफ़ से दोस्ती है, आप मुलाहिजा़ और मुरव्वत के सबब से कुछ न कह सकते हों, तो मुझे उसकी दुकान दिखा दीजिए। नहीं आपको शर्म आती हो तो उसका नाम बता दीजिए, मैं पता लगा लूँगी। वाह अच्छी दिल्लगी है। दूकान नीलाम करा लूँगी। जेल भिजवा दूँगी। इन बदमाशों से लड़ाई के बगैर काम नहीं चलता।

रमा अप्रतिभ होकर जमीन की ओर ताकने लगा। वह कितनी मनहूस घड़ी थी, जब उसने रतन से रुपये लिये ! बैठे-बिठाये विपत्ति मोल ली।

जालपा ने कहा–सच तो है, इन्हें क्यों नहीं सराफ़ की दूकान पर ले जाते, चीज आँखों से देकर इन्हें सन्तोष हो जायेगा।

रतन–मैं अब चीज लेना नहीं चाहती।

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