उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
रमा दफ्तर बन्द करके भोजन करने घर जाने ही वाला था कि एक बिसाती का ठेला आ पहुँचा। रमा ने कहा, लौटकर चुंगी लूँगा। बिसाती ने मिन्नत करनी शुरू की। उसे कोई बड़ा ज़रूरी काम था। आखिर दस रुपये पर मामला ठीक हुआ। रमा ने चुंगी ली, रुपये जेब में रक्खे और घर चला। पच्चीस रुपये केवल दो ढाई घंटों में आ गये। अगर एक महीने भी यह औसत रहे तो पल्ला पार है। उसे इतनी खुशी हुई कि वह भोजन करने घर न गया। बाजार से भी कुछ नहीं मँगवाया। रुपये भुनाते हुए उसे एक रुपया कम हो जाने का खयाल हुआ। वह शाम तक बैठा काम करता रहा। चार रुपये और वसूल हुए। चिराग जले वह घर चला, तो उसके मन पर से चिन्ता और निराशा का बहुत बोझ उतर चुका था। अगर दस दिन यही तेज़ी रही, तो रतन से मुँह चुराने का नौबत न आयेगी।
[१७]
नौ दिन गुजर गये। रमा रोज प्रातः दफ्तर जाता और चिराग जले लौटता। वह रोज यही आशा लेकर जाता कि आज कोई बड़ा शिकार फँस जायेगा। पर वह आशा न पूरी होती। इतना ही नहीं। पहले दिन की तरह फिर भाग्य का सूर्य न चमका। फिर भी उसके लिए कुछ कम श्रेय की बात नहीं थी कि नौ दिनों में ही उसने सौ रुपये, जमा कर लिये थे। उसने एक पैसे का पान भी न खाया था। जालपा ने कई बार कहा, चलो कहीं घूम आवें, तो उसे भी उसने बातों में ही टाला। बस कल का दिन और था। कल आकर रतन कंगन माँगेगी तो उसे क्या जवाब देगा। दफ्तर से आकर वह इसी सोच में बैठा हुआ था। क्या एक महीने भर के लिए और न मान जायेगी। इतने दिन वह और न बोलती तो शायद वह उससे उऋण हो जाता। उसे विश्वास था कि मैं उससे चिकनी-चुपड़ी बातें करके राज़ी कर लूँगा। अगर उसने जिद की तो मैं उससे कह दूँगा, सराफ रुपये नहीं लौटता।
सावन के दिन थे, अँधेरा हो चला था, रमा सोच रहा था, रमेश बाबू के पास चलकर दो-चार बाज़ियाँ खेल आऊँ; मगर बादलों को देख-देख रुक जाता था। इतने में रतन आ पहुँची। वह प्रसन्न न थी। उसकी मुद्रा कठोर हो रही थी। आज वह लड़ने के लिए घर से तैयार होकर आयी है और मुहब्बत मुलाहजे़ की कल्पना को भी कोसों दूर रखना चाहती है।
जालपा ने कहा–तुम खूब आयीं। आज मैं भी ज़रा तुम्हारे साथ घूम आऊँगी। इन्हें काम के बोझ से आजकल सिर उठाने की भी फुरसत नहीं है।
रतना ने निष्ठुर से कहा–मुझे आज बहुत जल्द घर लौट जाना है। बाबूजी को कल की याद दिलाने आयी हूँ।
रमा उसका लटका हुआ मुँह देखकर ही मन में सहम रहा था। किसी तरह उसे प्रसन्न करना चाहता था। बड़ी तत्परता से बोला–जी हाँ, खूब याद है, अभी सराफ की दुकान से चला आ रहा हूँ। रोज़ सुबह-शाम घंटे भर हाजिरी देता हूँ, मगर इन चीजों में समय बहुत लगता है दाम तो कारीगरी के हैं। मालियत देखिए तो कुछ नहीं। दो आदमी लगे हुए हैं, पर शायद अभी एक महीने से कम में चीज़ तैयार न हो; पर होगी लाजवाब। जी खुश हो जायेगा।
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