उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
जालपा ने पूछा–कहाँ चले गये थे, बड़ी देर लगा दी?
रमानाथ–तुम्हारे कारण रतन के बँगले पर जाना पड़ा। तुमने सब रुपये उठाकर दे दिये, उसमें दो सौ रुपये मेरे भी थे।
जालपा–तो मुझे क्या मालूम था, तुमने कहा भी तो न था; मगर उनके पास से रुपये कहीं जा नहीं सकते, वह आप ही भेज देंगी।
रमानाथ–माना; पर सरकारी रकम तो कल दाखिल करनी पड़ेगी।
जालपा–कल मुझसे दो सौ रुपये ले लेना मेरे पास हैं।
रमा को विश्वास न आया। बोला–कहीं हों न तुम्हारे पास ! इतने रुपये कहाँ से आये?
जालपा–तुम्हें इससे क्या मतलब मैं तो दो सौ रुपये देने कहती हूँ।
रमा का चेहरा खिल उठा। कुछ-कुछ आशा बँधी। दो सौ यह दे दे, दो सौ रुपये रतन से लूँ, सौ रुपये मेरे पास हैं ही, तो कुछ तीन सौ रुपये की कमी रह जायेगी; मगर यह तीन सौ रुपये कहाँ से आयेंगे? ऐसा कोई नजर न आता था, जिससे इतने रुपये मिलने की आशा की जा सके। हाँ, अगर रतन सब रुपये दे दे तो बिगड़ी बात बन जाये। आशा का यही एक आधार रह गया था।
जब वह खाना खाकर लेटा, तो जालपा ने कहा–आज किस सोच में पड़े हो?
रमानाथ–सोच किस बात का? क्या मैं उदास हूँ?
जालपा–हाँ, किसी चिन्ता में पड़े हुए हो, मगर मुझसे बताते नहीं हो !
रमानाथ–ऐसी कोई बात होती तो तुमसे छिपाता?
जालपा–वाह, तुम अपने दिल की बात मुझसे क्यों कहोगे? ऋषियों की आज्ञा नहीं है।
रमानाथ–मैं उन ऋषियों के भक्तों में नहीं हूँ।
जालपा–वह तो सब मालूम होता है, जब मैं तुम्हारे हृदय में बैठकर देखती।
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