उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
रमानाथ–भई कल मैं रुपये लेकर तो आ न सकूँगा, यों जब कहो तब चला आऊँ। क्यों, इस वक्त अपने सेठजी से चार-पाँच सौ रुपयों का बन्दोबस्त न करा दोगे? तुम्हारी मुट्ठी भी गरम कर दूँगा।
चरन–कहाँ की बात लिये फिरते हो बाबूजी, सेठजी एक कौड़ी तो देंगे नहीं। उन्होंने यही बहुत सलूक किया कि नालिश नहीं कर दी। आपके पीछे मुझे बातें सुननी पड़ती है। क्या बड़े मुंशीजी से कहना पड़ेगा?
रमा ने झल्लाकर कहा–तुम्हारा देनदार मैं हूँ, बड़े मुंशी नहीं है। मैं मर नहीं गया हूँ, घर छोड़कर भागा नहीं जाता हूँ। इतने अधीर क्यों हुए जाते हो?
चरनदास–साल भर हुआ, एक कौड़ी नहीं मिली, अधीर न हों तो क्या हों। कल कम-से-कम दो सौ की फिकर कर रखिएगा।
रमानाथ–मैंने कह दिया, मेरे पास अभी रुपये नहीं हैं।
चरनदास–रोज गठरी काट-काटकर रखते हो, उस समय पर कहते हो रुपये नहीं हैं। कल रुपये जुटा रखना। कल आदमी आयेगा ज़रूर।
रमा ने उसका कोई जवाब न दिया, आगे बढ़ा। इधर आया था कि कुछ काम निकलेगा, उल्टे तकाजा सहना पड़ा। कहीं दुष्ट सचमुच बाबूजी के पास तकाजा न भेज दे। आग ही हो जायेंगे। जालपा भी समझेगी, कैसा लबाड़िया आदमी है।
इस समय रमा की आँखों से आँसू तो न निकलते थे, पर उसका एक-एक रोआँ रो रहा था। जालपा से अपनी असली हालत छिपाकर उसने कितनी भारी भूल की ! वह समझदार औरत है, अगर उसे मालूम हो जाता कि मेरे घर में भूँजी भाँग भी नहीं है, तो वह मुझे कभी उधार गहने न लेने देती। उसने तो कभी अपने मुँह से कुछ नहीं कहा। मैं ही अपनी शान जमाने के लिए मरा जा रहा था। इतना बड़ा बोझ सिर पर लेकर भी मैंने क्यों किफ़ायत से काम नहीं लिया? मुझे एक-एक पैसा दाँतों से पकड़ना चाहिए था। साल भर में मेरी आमदनी सब मिलाकर एक हज़ार से कम न हुई होगी। अगर किफायत से चलता, तो इन दोनों महाजनों के आधे-आधे रुपये अदा हो जाते; मगर यहाँ तो सिर पर शामत सवार थी। इसकी क्या ज़रूरत थी कि जालपा मुहल्ले भर की औरतों को जमा करके रोज़ सैर करने जाती? सैकड़ों रुपये तो ताँगेवाला ले गया होगा; मगर यहाँ तो उस पर रोब जमाने की पड़ी हुई थी। सारा बाज़ार जान जाये कि लाला निरे लफंगे हैं, पर अपनी स्त्री न जानने पाये ! वाह री बुद्धि ! दरवाजों के लिए परदों की क्या ज़रूरत थी? दो लैम्प क्यों लाया, नयी किवाड़ लेकर चारपाइयाँ क्यों बिनवायीं? उसने रास्ते में ही उन सारे खर्चों का हिसाब तय कर लिया, जिन्हें उसकी हैसियत के आदमी को टालना चाहिए था। आदमी जब तक स्वस्थ रहता है, उसे इसकी चिन्ता नहीं रहती थी कि क्या खाता है, कितना खाता है, कब खाता है; लेकिन जब कोई विकार उत्पन्न हो जाता है, तो याद आती है कि कल मैंने पकौड़ियाँ खायी थीं। विजय बहिर्मुखी होती है, परायज अन्तर्मुखी।
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