कहानी संग्रह >> गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह) गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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गल्प-लेखन-कला की विशद रूप से व्याख्या करना हमारा तात्पर्य नहीं। संक्षिप्त रूप से गल्प एक कविता है
भाई और मेरी भावज तो जैसे डूबने के लिए तैयार बैठे हुए थे। मुझे वहाँ से लौटने के बाद–नहाना क्या था, सूखे कपड़े पहनने थे।
सर्दी के मारे दाँत तो अपने ही कटकटा रहे थे। वहाँ से लौटने के बाद, सूखे कपड़े पहनने के बाद, आग मैंने जलाई। भैया बेचारे बार-बार बीड़ी पीते! उन्हीं के साथ उनका नौकर भी बीड़ी पीता। भारी-भरकम शरीर, तिस पर बुढ़ापे की उमर। मैं जब तापने लगी, तो मुझे खयाल आया कि ये लोग तो पानी में अभी तक उसी तरह बैठे हुए हैं। पानी अभी उसी तरह मूसलाधार बरस रहा था। मैंने कई आवाजें लगाईं। फिर भी उन्होंने शायद मेरी आवाज नहीं सुनी थी। इशारे से मेरी तरफ आये भाई और मेरी भावज।
बोले, क्या है
मैं बोली–क्या है! आप लोगों ने नशा खा लिया है क्या? आप लोग सूखे कपड़े क्यों नहीं पहनते हैं!
भैया बोले-मैं तो बीड़ी इस वजह से पी रहा था, कि शायद बदन में कुछ गर्मी आये, पाखाने जाऊँ
मैं बोली, कि–अगर सिगरेटों से ही गर्मी आ गई होती बदन में लोगों के, तो ये जो बड़ी-बड़ी मिलें हैं, ऊलन की, ये बन्द हो गई होतीं, कभी की।
गरज के वे तीनों आदमी आ करके, सूखे कपड़े पहन-पहन करके वहीं आग के सामने घेरकर बैठ गये।
उनका बूढ़ा नौकर, जब शायद मुझे कहते सुना, तो शायद उसके भी अकल में आ गई बात। एक अँगोछा पहनकर, ऊपर से एक मैली चादर डाल कर, वह भी उसी बगल में बैठ गया आग के। नौकर को बैठे पाँच मिनट भी नहीं बीता होगा, कि उनके घर में छोटे-छोटे कई बच्चे थे, उन्होंने आवाज देना शुरू किया- ‘ओ’ चन्दरवा!’ (नौकर का नाम चन्दरवा था), ओ चन्दरवा! काम करने के समय, तू कहाँ आग बैठे-बैठे ताप रहा है?
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