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गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8446
आईएसबीएन :978-1-61301-064

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गल्प-लेखन-कला की विशद रूप से व्याख्या करना हमारा तात्पर्य नहीं। संक्षिप्त रूप से गल्प एक कविता है


दूसरी तरफ से बरामदा में पानी-ही-पानी था। सब सामान उसी में फैल गया था। मैंने घबराकर भैया से पूछा–आखिर यह पानी कहाँ से आ गया है?

भाई बोले–अरे, पानी बरसा, बेवकूफ, और कहाँ से आ गया है?

मैं बोली–अरे, मैं जानती हूँ कि पानी बरसा है। मैं पूछती हूँ कि यह पानी जमा क्यों हो गया है। बेबकूफ मुझी को बनाते है।

वह बोले–अरे साहब चार नालियाँ हैं इस मकान में। चारों भरी पड़ी हैं। जब रोशनदान तक पानी आ गया, तो नीचे पानी आयाः जो कमरे भरे हुए हैं।

मैं बोली-तो नालियाँ खोलकर ठीक क्यों नहीं कर देते। खड़े-खड़े तमाशा क्या देख रहे हैं।

बोले–अरे भाई, मकान तो मैंने बनवाया, मगर मैंने समझा कि इसकी नाली कमबख्त कहाँ है।

अपने छोटे भाई का नाम लेकर बोले–अरे वह रहता था, सब नाली वाली देखता था।

मैं बोली– नौकर भी नहीं कोई आया?

आप बोले– इस पानी में कहाँ से नौकर आयेगा, भाई। जब तुम आँख बन्द किये तम्बाकू माँगती हो, तो नौकर भी तो आदमी ही है।

मैं बोली–तो फिर मेरी समझ में नहीं आता कि आखिर होगा क्या! भाई बेचारे रिटायर्ड वकील, बोले – चाहे डूबें, चाहे रहें, बाबा; मेरे मान का कुछ नहीं।

सुनिये साहब, मैंने जब यह सब सुन लिया, तो मैं उठी फिर। अपने अन्दाज के जरिये से मैंने नालियाँ साफ की। पानी नीचे गया। यहाँ से लौटने के बाद हम चार-के-चार आदमी -एक बूढा भी बेचारा आ गया था, वह भी बेचारा भीग गया।

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