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गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8446
आईएसबीएन :978-1-61301-064

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गल्प-लेखन-कला की विशद रूप से व्याख्या करना हमारा तात्पर्य नहीं। संक्षिप्त रूप से गल्प एक कविता है


गरमी की बड़ी छुट्टियों के आठ-दस दिन ही बाकी हैं। सतीश ने अबकी बार छुट्टी के तीनों महीने बाहर ही काटे। कल उसकी चिट्ठी आई कि वह आज रात को रामसुन्दर-सहित मकान पहुँचेगा। उसका कमरा साफ किया गया है। वृद्धा माता भी आज बड़ी खुशी से भोजन बना रही हैं। सरला के मन की आज अद्भुत दशा है। कभी तो वह हर्ष के मारे उछलने लगती है और कभी किसी अज्ञात कारण से उसे उसकी गति और भी कम पड़ जाती है। उसका मुख-सरोज घड़ी-घड़ी पर इन भावों के अस्तोदय के साथ खिलता और मुरझाता है। उसने यह भी सुना है कि सतीश के साथ उसके मित्र भी आवेंगे, जिनके काम में अपनी सारी छुट्टियाँ खर्च की हैं। सरला मन-ही-मन सतीश के मित्र पर नाराज भी है, क्योंकि उसके कारण ही सतीश की छुट्टियों से वह फायदा नहीं उठा सकी।

सतीश रात को नौ बजे की ट्रेन से मकान पर पहुँच गया। राजा बाबू उसकी प्रतीक्षा कर रही रहे थे। उन्होंने बड़े प्रेम से रामसुन्दर को अपने पास बिठाया और बड़े आग्रह से पूछा– ‘‘मुझे आशा है, तुम अपनी चेष्टाओं में अवश्य सफल हुए होगे।’ रामसुन्दर ने निराशा भरी आवाज से उत्तर दिया– ‘सफलता का कोई चिह्न नहीं मिला। भविष्यत् के लिए कोई आशा भी बाकी रही नहीं।’ इस पर डाक्टर साहब ने उसे ढांढस देकर उसके चित्त-क्षोभ को बहुत कम कर दिया।

सतीश मामाजी के चरण छूकर अन्दर आ गया। सरला को देखते ही उसका मुख-कोमल खिल उठा। उसने देखा कि उसके काम की हर चीज ठीक रक्खी हुई है बड़ी सावधानी से उसके आने की बाट देखी जा रही है। सरला ने मुस्कराकर, पर ताने के साथ, पूछा–‘अबकी बार आपने कुल छुट्टियाँ बाहर हीं बिता दीं?’

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