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गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8446
आईएसबीएन :978-1-61301-064

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गल्प-लेखन-कला की विशद रूप से व्याख्या करना हमारा तात्पर्य नहीं। संक्षिप्त रूप से गल्प एक कविता है


अपनी लच्छेदार कहानी सुनाकर ठाकुर का मनोविनोद करता।

ठाकुर ने हँसते हुए कहा– ‘तो आज पियोगे न?’

‘झूठ कैसे कहूँ। आज तो जितना मिलेगा, सबकी पीऊँगा। सात दिन चने-चबेने पर बिताये हैं, किसलिए।’

‘अद्भुत! सात दिन पेट काटकर आज अच्छा भोजन न करके तुम्हें पीने की सूझी है? यह भी...’

‘सरकार! मौज-बहार की एक घड़ी, एक लम्बे दुःख- पूर्ण जीवन से अच्छी है उसकी खुमारी में रूखे दिन काट लिये जा सकते हैं।’

‘अच्छा आज दिन भर तुमने क्या-क्या किया?’

‘मैंने? अच्छा सुनिए-सबेरे कुहरा पड़ता था, मेरे धुँआ से कम्बल-सा वह भी सूर्य के चारों ओर लिपटा था। हम दोनों मुँह छिपाये पड़े थे।’

ठाकुर साहब ने हँसकर कहा–‘अच्छा तो मुँह छिपाने का कोई कारण?’

‘सात दिन से एक बूँद भी गले में न उतरी थी। भला मैं कैसे मुँह दिखा सकता था। और जब बारह बजे धूप निकली, तो फिर लाचारी थी। उठा, हाथ-मुँह धोने में जो दुख हुआ, सरकार वह क्या कहने की बात है? पास में पैसे बचे थे। चना चबाने से दाँत भाग रहे थे। कटकटी लग रही थी। पराठे वाले के यहाँ पहुँचा, धीरे-धीरे खाता रहा और अपने को सेंकता भी रहा। फिर गोमती किनारे चला गया! घूमते-घूमते अँधेरा हो गया, बूँदे पड़ने लगीं। तब कहीं भगा और आपके पास आ गया।’

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