कहानी संग्रह >> गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह) गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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गल्प-लेखन-कला की विशद रूप से व्याख्या करना हमारा तात्पर्य नहीं। संक्षिप्त रूप से गल्प एक कविता है
शराबी एक क्षण-भर चुप रहा। फिर चुपचाप जलपान करने लगा। मन ही मन सोच रहा था-यह भाग्य का संकेत नहीं तो और क्या है? चलूँ फिर कल लेकर सान देने का काम चलता करूँ। दोनों का पेट भरेगा। वही पुराना चरखा सिर पर पड़ा। नहीं तो, दो बातें किस्सा-कहानी, इधर-उधर की कहकर अपना काम चला ही लेता था! फिर अब तो बिना कुछ किये घर नहीं चलने का। जल पीकर बोला - ‘क्यों रे मधुआ, अब तू कहाँ जायगा?’
‘कहीं नहीं!’
‘यह लो, तो फिर क्या यहाँ जमा गड़ी है कि मैं खोद-खोदकर तुझे मिठाई खिलाता रहूँगा!’
‘तब कोई काम करना चाहिए।’
‘करेगा?’
‘जो कहो?’
‘अच्छा तो आज से मेरे साथ-साथ घूमना पडेगा। यह कल तेरे लिए लाया हूँ! चल आज से तुझे सान देना सिखाऊँगा। कहाँ रहूँगा, इसका कुछ ठीक नहीं। पेड़ के नीचे रात बिता सकेगा न?’
‘कहीं भी रह सकूँगा, पर उस ठाकुर की नौकरी न कर सकूँगा!’- शराबी ने एक बार स्थिर दृष्टि से उसे देखा। बालक की आँखें दृढ़ निश्चय की सौगंध खा रही थीं।
शराबी ने मन ही मन कहा– बैठे-बैठाये यह हत्या कहाँ से लगी। अब तो शराब न पीने की मुझे भी सौगंध लेनी पड़ी।
वह साथ ले जाने वाली वस्तुओं को बटोरने लगा! एक गट्ठर का और दूसरा कल का, दो बोझ हुए।
शराबी ने पूछा– तू किसे उठायेगा?
‘जिसे कहो।’
‘अच्छा, तेरा बाप जो मुझको पकड़े तो?’
‘कोई नहीं पकड़ेगा, चलो भी। मेरे बाप मर गये।’
शराबी आश्चर्य से उसका मुँह देखता हुआ कल उठाकर खड़ा हो गया। बालक ने गठरी लादी। दोनों कोठरी छोड़कर चल पड़े।
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