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गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8446
आईएसबीएन :978-1-61301-064

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गल्प-लेखन-कला की विशद रूप से व्याख्या करना हमारा तात्पर्य नहीं। संक्षिप्त रूप से गल्प एक कविता है


भावज ने उसके सिर पर हाथ फेरकर कहा–मैं तुम्हें पुत्रों से बढ़ कर चाहूँगी। क्या हुआ जो तुम्हारे माता-पिता मर गये। हम तो जीते हैं।

‘यह नहीं, मेरे बेटो को सँभालो। मैं अब घर में न रहूँगा।’

उसकी भाभी अवाक् रह गई। पालू अब सम्पत्ति बाँटने के लिए झगड़ा करेगा, उसे इस बात की शंका थी; परन्तु यह सुनकर कि पालू घर-बार छोड़ जाने को उद्यत है, उसका हृदय आनन्द से फूलने लगा। मगर अपने हर्ष को छिपा कर बोली–‘यह क्या? तुम हमें छोड़ जाओगे, तो हमारा जी यहाँ कैसे लगेगा?’

‘नहीं, अब यह घर भूत के समान काटने को दौड़ता है। मैं यहाँ रहूँगा, तो जीता न बचूँगा। मेरे बच्चे के सिर पर हाथ रक्खो। मुझे धन न चाहिए, न सम्पत्ति। मैं सांसारिक धंधों से मुक्त होना चाहता हूँ। अब मैं संन्यासी बनूँगा।’

यह कहकर अपने पुत्र सुखदयाल को पकड़कर भावज की गोद में डाल दिया और रोते हुए बोला–इसकी माँ मर चुकी है, पिता संन्यासी हो रहा है। परमात्मा के लिए इसका हृदय न दुखाना।

बालक ने जब देखा कि पिता रो रहा है, तो वह भी रोने लगा और उसके गले लिपट गया; परन्तु पालू के पाँव को यह स्नेह-रज्जु भी न बांध सकी। उसने हृदय पर पत्थर रक्खा और अपने संकल्प को दृढ़ कर लिया।

कैसा हृदय-बेधक दृश्य था, सायंकाल को जब पशु-पक्षी अपने-अपने बच्चों के पास घरों को वापस लौट रहे थे, पालू अपने बच्चे को छोड़कर घर से बाहर जा रहा था।

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