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गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8446
आईएसबीएन :978-1-61301-064

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गल्प-लेखन-कला की विशद रूप से व्याख्या करना हमारा तात्पर्य नहीं। संक्षिप्त रूप से गल्प एक कविता है


दो वर्ष बीत गये। पालू की अवस्था में आकाश-पाताल का अन्तर पड़ गया। वह पर्वत पर रहता था, पत्थरों पर सोता था, रात्रि को जागता था और प्रति क्षण ईश्वर-भक्ति में मग्न रहता था। उसके इस आत्म-संयम की, सारे हृषीकेश में धूम मच गयी। लोग कहते, यह मनुष्य नहीं देवता है। यात्री लोग जब तक स्वामी विद्यानन्द के दर्शन न कर लेते, अपनी यात्रा को सफल न समझते। उसकी कुटिया बहुत दूर पर्वत की एक कन्दरा में थी; परन्तु उसके आकर्षण से लोग वहाँ खिंचे चले आते थे। उसकी कुटिया में रुपये-पैसे और फल-मेवे के ढेर लगे रहते थे; परन्तु वह त्याग का मूर्तिमान रूप उनकी ओर आँख भी न उठाता था। हाँ, इतना लाभ अवश्य हुआ कि उनके निमित्त स्वामीजी के बीसों चेले बन गये। स्वामी जी के मुख-मण्डल पर तेज बरसता था, जैसे सूरज से किरणें निकलती हैं। परन्तु इतना होते हुए मन को शान्ति न थी। बहुधा सोचा करते थे कि देश-देशान्तर में मेरी भक्ति की धूम मच रही है, दूर-दूर मेरे यश के डंके बज रहे हैं, मेरे संयम को देख कर बड़े-बडे महात्मा चकित रह जाते हैं; परन्तु मेरे मन को शान्ति क्यों नहीं। सोता हूँ, तो सुख की निद्रा नहीं आती; जागता हूँ तो पूजा-पाठ में मन एकाग्र नहीं होता। इसका कारण क्या है? उन्हें कई बार ऐसा अनुभव हुआ कि चित्त में अशान्ति है; पर वह क्यों है, इसका पता न लगता।

इसी प्रकार दो वर्ष व्यतीत हो गये। स्वामी विद्यानन्द की कीर्ति सारे हृषीकेश में फैल गई; परन्तु इतना होने पर भी उनका हृदय शान्त न था। प्रायः उनके कान में आवाज आती थी कि तू अपने आदर्श से दूर जा रहा है। स्वामीजी बैठे-बैठे चौंक उठते मानो किसी ने काँटा चुभा दिया हो। बार-बार सोचते; परन्तु कारण समझ में न आता। तब घबराकर रोने लग जाते। इससे मन तो हल्का हो जाता; परन्तु चित्त को शान्ति फिर भी न होती। उस समय सोचते–संसार मुझे धर्मावतार समझ रहा है, पर कौन जानता है कि यहाँ आठों पहर आग सुलग रही है। पता नहीं, पिछले जन्म में कौन पाप किये थे, जिससे अब तक आत्मा को शान्ति नहीं मिलती।

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