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गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8446
आईएसबीएन :978-1-61301-064

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गल्प-लेखन-कला की विशद रूप से व्याख्या करना हमारा तात्पर्य नहीं। संक्षिप्त रूप से गल्प एक कविता है


लोहड़ी का दिन था, साँझ का समय। बालकराम के द्वार पर पुरुषों की भीड़ थी, आँगन में स्त्रियों का जमघट। कोई गाती थीं, कोई हँसती थीं, कोई अग्नि में चावल फेंकती थीं, कोई चिवड़े खाती थीं। तीन कन्याओं के पश्चात् परमात्मा ने पुत्र दिया था। वह उसकी पहली लोहड़ी थी। बालकराम और उसी स्त्री दोनों आनन्द से प्रफुल्लित थे। बड़े समारोह से त्योहार मनाया जा रहा था। दस रुपये की मक्की उड़ गई, चिवड़े और रेवड़ी इसके अतिरिक्त; परन्तु सुखदयाल की ओर किसी का भी ध्यान न था। वह घर से बाहर दीवार के साथ खड़ा लोगों की ओर लुब्ध–दृष्टि से देख रहा था कि एकाएक भोलानाथ ने उसके कन्धों पर हाथ रखकर कहा–सुक्खू!

सूखे खानों में पानी पड़ गया। सुखदयाल ने पुलकित होकर उत्तर दिया चाचा!

‘आज लोहड़ी है, तुम्हारे ताई ने तुम्हें क्या दिया?’

‘मक्की।’

‘और क्या दिया?’

‘और कुछ नहीं।’

‘और तुम्हारी बहनों को?’

‘मिठाई भी दी, संतरे भी दिये, पैसे भी दिये।’

भोलानाथ के नेत्रों में जल भर आया। भर्राये हुए स्वर से बोले–हमारे घर चलोगे!

‘चलूँगा।’

‘कुछ खाओगे?’

‘हाँ खाऊँगा।’

घर पहुँचकर भोलानाथ ने पत्नी से कहा–इसे कुछ खाने को दो। भोलानाथ की तरह उनकी पत्नी भी सुखदयाल से बहुत प्यार करती थी। उसने बहुत-सी मिठाई उसके सम्मुख रख दी। सुखदयाल रुचि से खाने लगा। जब खा चुका, तो चलने को तैयार हुआ। भोलानाथ ने कहा–ठहरो इतनी जल्दी काहे की है।

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