कहानी संग्रह >> गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह) गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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गल्प-लेखन-कला की विशद रूप से व्याख्या करना हमारा तात्पर्य नहीं। संक्षिप्त रूप से गल्प एक कविता है
परन्तु वहाँ पालू के स्थान पर एक साधु महात्मा खड़े थे, जिनके मुख-मण्डल से तेज कि किरणें फूट रही थीं। सुखदेवी के मन को धीरज हुआ; परन्तु एकाएक ख्याल आया, यह तो वही है; वही मुँह, वही आँखें, वही रंग, वही रूप; परन्तु कितना परिवर्तन हो गया। सुखदेवी ने मुस्कराकर कहा–स्वामीजी, नमस्कार करती हूँ।
इतने में बालकराम अन्दर से निकला और रोता हुआ स्वामीजे से लिपट गया। स्वामीजी भी रोने लगे; परन्तु यह रोना दुःख का नहीं; आनन्द का था। जब हृदय कुछ स्थिर हुआ तो बोले–भाई, तनिक बाल-बच्चों को तो बुलाओ देखने को जी तरस गया।
सुखदेवी अन्दर को चली; परन्तु पाँव मन-मन के भारी हो गये। सोचती थी–यदि बालक सो गये होते, तो कैसा अच्छा होता। सब बातें ढंकी रहतीं। अब क्या करूँ, इस बदमाश सुक्खू के वस्त्र इतने मैले हैं कि सामने करने का साहस नहीं पड़ता। आँखें कैसे मिलाऊँगी। रंग में भंग डालने के लिए इसे आज ही आना था। दो वर्ष बाद आया है। इतना भी न हुआ कि पहले पत्र ही लिख देता।
इतने में स्वामी विद्यानन्द आ गये। पितृ-वात्सल्ता ने लज्जा को दबा लिया था; परन्तु सुखदयाल और भतीजों के वस्त्र तथा उनके रूप-रंग को देखा, तो खड़े-के-खड़े रह गये। भतीजियां ऐसी थीं, जैसे चमेली के फूल और सुक्खू; वही सुक्खू जो कभी मैना के समान चहकता फिरता था; जिसकी बातें सुनने के लिए राह जाते लोग खड़े हो जाते थे, जिसकी नटखटी बातों पर प्यार आता था, अब उदासीनता की मूर्ति बना हुआ था। उसका मुँह इस प्रकार कुम्हलाया हुआ था, जिस प्रकार जल न मिलने से वृक्ष कुम्हला जाता है। उसके बाल रूखे थे, और मुँह पर दारिद्रय बरसता था। उसके वस्त्र मैले-कुचैले, जैसे किसी भिखारी का लड़का हो स्वामी विद्यानन्द के नेत्रों में आँसू आ गये। सुखदेवी और बालकराम पर घड़ों पानी पड़ गया, खिसियाने से बोले–कैसा शरारती है, दिन-रात धूल में खेलता रहता है।
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