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गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8446
आईएसबीएन :978-1-61301-064

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गल्प-लेखन-कला की विशद रूप से व्याख्या करना हमारा तात्पर्य नहीं। संक्षिप्त रूप से गल्प एक कविता है


‘तू कहता था, ताई मुझे चिमटे से मारती है।’

बालकराम पास खड़ा था आश्चर्य से बोला–अच्छा, अब यह छोकरा हमारी मिट्टी उड़ाने पर उतर आया है। सुखदयाल ने आँखों-ही-आँखों ताऊ की ओर देखकर प्रार्थना की मुझे निर्दयी से बचाओ; परन्तु वहाँ क्रोध बैठा था। आशा ने निराशा का रूप धारण कर लिया। ताई ने कर्कश स्वर से डाँटकर पूछा–‘क्यों, बोलता क्यों नहीं?’

‘अब न कहूँगा।’

‘अब न कहूँगा। न मरता है, न पीछा छोड़ता है। खाने को देते जाओ, जैसे इसके बाप की जागीर पड़ी है।’

यह कहकर उसने पास पड़ा हुआ बेलन उठाया। उसे देखकर सुखदयाल बिलबिला उठा; परन्तु अभी उसके शरीर पर न पड़ा था कि उसकी लड़की दौड़ती हुई आई और कहने लगी–चाचा आया है।

सुखदेवी का हृदय काँप गया। वह बैठी थी, खड़ी हो गई और बोली कौन-सा चाचा? गुजरात वाला है?

‘नहीं, पालू।’

सुखदेवी और बालकराम दोनों स्तम्भित रह गये। जिस प्रकार बिल्ली को सामने देखकर कबूतर सहम जाता है, उसी प्रकार दोनों सहम गये। आज से दो वर्ष पहले जब साधु बनने के लिए बिदा होने आया था; तब सुखदेवी मन में प्रसन्न हुई थी; परन्तु उसने प्रकट ऐसा किसा था, मानो उसका हृदय इस समाचार से टुकड़े-टुकड़े हो गया है। इस समय उसके मन में भय और व्याकुलता थी; परन्तु मुख पर प्रसन्नता की झलक थी। वह जल्दी से बाहर निकली और बोली–पालू।

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