कहानी संग्रह >> गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह) गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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गल्प-लेखन-कला की विशद रूप से व्याख्या करना हमारा तात्पर्य नहीं। संक्षिप्त रूप से गल्प एक कविता है
सवार चला गया। मीर साहब की आत्मा काँप उठी। मिर्जा जी से बोले–कहिए, जनाब, अब क्या होगा?
मिर्जा–बड़ी मुसीबत है। कहीं मेरी भी तलबी न हो।
मीर–कम्बख्त कल आने को कह गया है।
मिर्जा–आफत है, और क्या! कहीं मोरचे पर जाना पड़ा तो बेमौत मरे।
मीर–बस, यही एक तदबीर है कि घर पर मिलें ही नहीं। कल से गोमती पर कहीं वीराने में नक्शा जमे। वहाँ किसे खबर होगी? हजरत आकर लौट जायेंगे।
मिर्जा–वल्लाह, आपको खूब सूझी! इसके सिवा और कोई तदबीर नहीं है।
इधर मीर साहब की बेगम उस सवार से कह रही थीं –तुमने खूब धता बतायी।
उसने जवाब दिया–ऐसे गावदियों को तो चुटकियों पर नचाता हूँ। इनकी सारी अकल और हिम्मत तो शतरंज ने चर ली। अब भूलकर भी घर न रहेंगे।
दूसरे दिन से दोनों मित्र मुँह-अँधेरे घर से निकल खड़े होते। बगल में एक छोटी-सी दरी दबाये, डिब्बे में गिलोरियाँ भरे; गोमती पार कर एक पुरानी वीरान मस्जिद में चले जाते; जिसे शायद नवाब आसफउद्दौला ने बनवाया था। रास्ते में तम्बाकू; चिलम और मदरिया ले लेते और मस्जिद में पहुँच, दरी बिछा, हुक्का भर शतरंज खेलने बैठ जाते थे। फिर उन्हें दीन-दुनिया की फिक्र न रहती थी। किस्त, शह आदि दो-एक शब्दों के सिवा मुँह से और कोई वाक्य नहीं निकलता था। कोई योगी भी समाधि में इतना एकाग्र न होता। दो पहर को जब भूख मालूम होती तो दोनों मित्र किसी नानबाई की दूकान पर जाकर खाना खा आते और एक चिलम हुक्का पीकर फिर संग्राम क्षेत्र में डट जाते। कभी-कभी तो उन्हें भोजन का भी ख्याल न रहता था।
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