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गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8446
आईएसबीएन :978-1-61301-064

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गल्प-लेखन-कला की विशद रूप से व्याख्या करना हमारा तात्पर्य नहीं। संक्षिप्त रूप से गल्प एक कविता है


इधर देश की राजनीतिक दशा भयंकर हलचल मची हुई थी। लोग बाल-बच्चों को ले-ले कर देहातों में भाग रहे थे। पर हमारे दोनों खिलाड़ियों को इसकी जरा भी फिक्र न थी। वे घर से आते तो गलियों में होकर। डर था कि कहीं किसी बादशाही मुलाजिम की निगाह न पड़ जाय, नहीं तो बेगार में पकड़े जायँ हजारों रुपये सालाना की जागीर मुफ्त में ही हजम करना चाहते थे।

एक दिन दोनों मित्र मस्जिद के खंडहर में बैठे हुए शतरंज खेल रहे थे। मिर्जा की बाजी कुछ कमजोर थी। मीर साहब उन्हें किश्त पर किश्त दे रहे थे। इतने में कम्पनी के सैनिक आते हुए दिखाई दिये। यह गोरों की फौज थी जो लखनऊ पर अधिकार जमाने के लिए आ रही थी।

मीर साहब–अंगरेजी फौज आ रही है खुदा खैर करे!

मिर्जा–आने दीजिए, किश्त बचाइए। लो यह किश्त!

मीर–जरा देखना चाहिए, यहीं आड़ में हो जाएँ

मिर्जा–देख लीजिएगा, क्या जल्दी है, फिर किश्त?

मीर–तोपखाना भी है। कोई पाँच हजार आदमी होंगे, कैसे जवान है। लाल बन्दरों के-से मुँह हैं। सूरत देखकर खौफ मालूम होता है।

मिर्जा–जनाब, हीले न कीजिए। ये चकमें किसी और को दीजिएगा - यह किश्त!

मीर–आप भी अजीब आदमी हैं। यहाँ तो शहर पर आफत आयी हुई है, और आपको किश्त की सूझी है। कुछ खबर है कि शहर घिर गया तो घर कैसे चलेंगे?

मिर्जा–जब घर चलने का वक्त आयेगा, तो देखी जाएगी-यह किश्त, बस अब की शह में मात है।

फौज निकल गयी। दस बजे का समय था। फिर बाजी बिछ गयी। मिर्जा बोले-आज खाने की कैसी ठहरेगी?

मीर–अजी, आज तो रोजा है। क्या आपको भूख ज्यादा मालूम होती है?

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