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गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8446
आईएसबीएन :978-1-61301-064

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गल्प-लेखन-कला की विशद रूप से व्याख्या करना हमारा तात्पर्य नहीं। संक्षिप्त रूप से गल्प एक कविता है


मैं शहसवार नहीं हूँ। हाँ, लड़कपन में कई बार लद्दू घोड़ों पर सवार हुआ हूँ। यहां देखा तो दो कलाँ-रास घोड़े हमारे लिए तैयार खड़े थे! मेरी तो जान ही निकल गई। सवार तो हुआ, पर बोटियाँ काँप रहीं थीं। मैंने चेहरे पर शिकन न पड़ने दिया। घोड़े को ईश्वपरी के पीछे डाल दिया। खैरियत यह हुई कि ईश्वेरी ने घोड़े को तेज न किया, वरना शायद मैं हाथ-पाँव तुड़वाकर लौटता। संभव है, ईश्वीरी ने समझ लिया हो कि यह कितने पानी में है।

ईश्वलरी का घर क्यान था, किला था। इमामबाड़े का–सा फाटक, द्वार पर पहरेदार टहलता हुआ, नौकरों का कोई हिसाब नहीं, एक हाथी बँधा हुआ। ईश्वतरी ने अपने पिता, चाचा, ताऊ आदि सबसे मेरा परिचय कराया और उसी अतिश्यो क्ति के साथ। ऐसी हवा बाँधी कि कुछ न पूछिए। नौकर-चाकर ही नहीं, घर के लोग भी मेरा सम्मारन करने लगे। देहात के जमींदार, लाखों का मुनाफा, मगर पुलिस कान्सलटेबिल को अफसर समझने वाले। कई महाशय तो मुझे हुजूर-हुजूर कहने लगे!

जब जरा एकान्ते हुआ, तो मैंने ईश्वोरी से कहा–तुम बड़े शैतान हो यार, मेरी मिट्टी क्योंव पलीद कर रहे हो?

ईश्वररी ने दृढ़ मुस्कायन के साथ कहा–इन गधों के सामने यही चाल जरूरी थी, वरना सीधे मुँह बोलते भी नहीं।

जरा देर के बाद नाई हमारे पांव दबाने आया। कुंवर लोग स्टे शन से आये हैं, थक गए होंगे। ईश्वयरी ने मेरी ओर इशारा करके कहा–पहले कुंवर साहब के पांव दबा।

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