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गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8446
आईएसबीएन :978-1-61301-064

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गल्प-लेखन-कला की विशद रूप से व्याख्या करना हमारा तात्पर्य नहीं। संक्षिप्त रूप से गल्प एक कविता है


मैं चारपाई पर लेटा हुआ था। मेरे जीवन में ऐसा शायद ही कभी हुआ हो कि किसी ने मेरे पांव दबाए हों। मैं इसे अमीरों के चोंचले, रईसों का गधापन और बड़े आदमियों की मुटमरदी और जाने क्याक-क्यां कहकर ईश्वमरी का परिहास किया करता और आज मैं पोतड़ों का रईस बनने का स्वाँ ग भर रहा था।

इतने में दस बज गए। पुरानी सभ्यकता के लोग थे। नयी रोशनी अभी केवल पहाड़ की चोटी तक पहुँच पायी थी। अंदर से भोजन का बुलावा आया। हम स्ना न करने चले। मैं हमेशा अपनी धोती खुद छांट लिया करता हूँ; मगर यहाँ मैंने ईश्वीरी की ही भांति अपनी धोती भी छोड़ दी। अपने हाथों अपनी धोती छांटते शर्म आ रही थी। अंदर भोजन करने चले। होस्टहल में जूते पहने मेज पर जा डटते थे। यहाँ पाँव धोना आवश्योक था। कहार पानी लिये खड़ा था। ईश्व री ने पाँव बढ़ा दिए। कहार ने उसके पाँव धोए। मैंने भी पाँव बढ़ा दिए। कहार ने मेरे पाँव भी धोए। मेरा वह विचार न जाने कहाँ चला गया था।

सोचा था, वहाँ देहात में एकाग्र होकर खूब पढ़ेंगे, पर यहाँ सारा दिन सैर-सपाटे में कट जाता था। कहीं नदी में बजरे पर सैर कर रहे हैं, कहीं मछलिजयों या चिड़ियों का शिकार खेल रहे हैं, कहीं पहलवानों की कुश्तीा देख रहे हैं, कहीं शतरंज पर जमें हैं। ईश्वनरी खूब अंडे मँगवाता और कमरे में ‘स्टोंव’ पर आमलेट बनते। नौकरों का एक जत्थाग हमेशा घेरे रहता। अपने हाथ-पाँव हिलाने की कोई जरूरत नहीं। केवल जबान हिला देना काफी है। नहाने बैठो तो आदमी नहलाने को हाजिर, लेटो तो आदमी पंखा झलने को खड़े। मैं महात्मा  गांधी का कुंवर चेला मशहूर था। भीतर से बाहर तक मेरी धाक थी। नाश्तेग में जरा भी देर न होने पाए, कहीं कुंवर साहब नाराज न हो जाएँ; बिछावन ठीक समय पर लग जाए, कुंवर साहब के सोने का समय आ गया। मैं ईश्वछरी से भी ज्याादा नाजुक दिमाग बन गया था या बनने पर मजबूर किया गया था। ईश्वारी अपने हाथ से बिस्त र बिछाले लेकिन कुंवर मेहमान अपने हाथों कैसे अपना बिछावन बिछा सकते हैं! उनकी महानता में बट्टा लग जाएगा।

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