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गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8446
आईएसबीएन :978-1-61301-064

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गल्प-लेखन-कला की विशद रूप से व्याख्या करना हमारा तात्पर्य नहीं। संक्षिप्त रूप से गल्प एक कविता है


अँधेरी रात थी। सारी दुनिया सोती थी, मगर तारे आकाश में जागते थे। शीतलादेवी पलंग पर पड़ी। करवटें बदल रही थी और उसकी ननद सारन्धा फर्श पर बैठी हुई मधुर स्वर से गाती थी- बिन रघुबीर कटत नहीं रैन।

शीलता ने कहा– जी न जलाओ। क्या तुम्हें भी नींद नहीं आती?

सारन्धा-तुम्हें लोरी सुना रही हूँ।

शीतला-मेरी आँखों से तो नींद लोप हो गई।

सारन्धा-किसी को ढूँढ़ने गई होगी।

इतने में द्वार खुला और एक गठे हुए बदन के रूपवान् पुरुष ने भीतर प्रवेश किया। यह अनिरुद्ध था। उसके कपड़े भीगे हुए थे और बदन पर कोई हथियार न था। शीतला चारपाई से उतरकर जमीन पर बैठ गई।

सारन्धा ने पूछा-भैया, यह कपड़े भीगे क्यों हैं? अनिरुद्ध नदी तैरकर आया हूँ।

सारन्धा-हथियार क्या हुए?

अनिरुद्ध-छिन गये।

सारन्धा-और साथ के आदमी?

अनिरुद्ध सबने वीरगति पाई।

शीतला ने दबी जबान से कहा– ईश्वर ने ही कुशल किया...मगर सारन्धा के तीवरों पर बल पड़ गये और मुखमण्डल गर्व से सतेज हो गया बोली –भैया, तुमने कुल की मर्यादा खो दी। ऐसा कभी न हुआ था।

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