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गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8446
आईएसबीएन :978-1-61301-064

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गल्प-लेखन-कला की विशद रूप से व्याख्या करना हमारा तात्पर्य नहीं। संक्षिप्त रूप से गल्प एक कविता है


परन्तु कुछ ऐसी घटनाएँ हुईं कि चम्पतराय को मुगल-बादशाह का आश्रित होना पड़ा। वह अपना राज्य अपने भाई पहाड़सिंह को सौंपकर आप देहली चला गया। यह शाहजहाँ के शासन काल का अन्तिम भाग था। शाहजादा दाराशिकोह राजकीय-कार्यों को सँभालते थे। युवराज की आँखों में शील था, और चित्त् में उदारता। उन्होंने चम्पतराय की वीरता की कथाएँ सुनी थीं, इसलिए उसका बहुत आदर-सम्मान किया, और कालपी की बहुमूल्य जागीर उसकों भेंट की, जिसकी आमदनी नौ लाख थी। यह पहला अवसर था कि चम्पतराय को आये दिन के लड़ाई-झगड़े से निवृत्ति मिली और उसके साथ ही भोग विलास का प्राबल्य हुआ। रात-दिन आमोद-प्रमोद की चर्चा रहने लगी। राजा विलास में डूबे, रानियाँ जड़ाऊ गहनों पर रीझीं। मगर सारन्धा इन दिनों बहुत उदास और संकुचित रहती। वह इन रहस्यों से दूर-दूर रहती, ये नृत्य और गान की सभायें उसे सूनी प्रतीत होतीं।

एक दिन चम्पतराय ने सारन्धा से कहा– सारन, तुम उदास क्यों रहती हो? मैं तुम्हें कभी हँसते नहीं देखता। क्या मुझसे नाराज हो?

सारन्धा की आँखों में जल भर आया। बोली-स्वामी जी! आप क्यों ऐसा विचार करते हैं? जहाँ आप प्रसन्न हैं। वहाँ मैं भी खुश हूँ।

चम्पतराय-मैं जब से यहाँ आया हूँ मैंने तुम्हारे मुख-कमल पर कभी मनोहारिणी मुस्कराहट नहीं देखी। तुमने कभी अपने हाथों से मुझे बीड़ा नहीं खिलाया। कभी मेरी पाग नहीं सँवारी। कभी मेरे शरीर पर शस्त्र नहीं सजाये। कभी प्रेमलता मुरझाने तो नहीं लगी?

सारन्धा प्राणनाथ! आप मुझसे ऐसी बातें पूछते हैं। जिसका उत्तर मेरे पास नहीं है! यथार्थ में इन दिनों मेरा चित्त कुछ उदास रहता है। मैं बहुत चाहती हूँ कि खुश रहूँ; मगर एक बोझ-सा हृदय पर धरा रहता है।

चम्पतराय स्वयं आनन्द में मग्न थे। इसलिए उनके विचार में सारन्धा को असन्तुष्ट रहने का कोई उचित कारण नहीं हो सकता था। वे भौंहें सिकोड़कर बोले-मुझे तुम्हें उदास रहने का कोई कोई विशेष कारण नहीं मालूम होता। ओरछे में कौन-सा सुख था, जो यहाँ नहीं है? सारन्धा का चेहरा लाल हो गया। बोली –मैं कुछ कहूँ तो आप नाराज तो न होंगे?

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