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गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8446
आईएसबीएन :978-1-61301-064

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गल्प-लेखन-कला की विशद रूप से व्याख्या करना हमारा तात्पर्य नहीं। संक्षिप्त रूप से गल्प एक कविता है


यह कहकर उसने अपने पच्चीस योद्धाओं को तैयार होने की आज्ञा दी, स्वयं अस्त्र धारण किये और योद्धाओं के साथ वलीहादुरखाँ के निवास-स्थान पर जा पहुँची। खाँ साहब उसी घोड़े पर सवार होकर दरबार चले गये थे। सारन्धा दरबार की तरफ चली, और एक क्षण में किसी वेगवती नदी के सदृश बादशाही दरबार के सामने जा पहुँची। यह कैफियत देखते ही दरबार में हलचल मच गई। अधिकारी-वर्ग इधर-उधर से आकर जमा हो गये। आलमगीर भी सहन से निकल आये! लोग अपनी-अपनी तलवारें सँभालने लगे और चारों तरफ शोर मच गया। कितने ही नेत्रों ने इसी दरबार में अमरसिंह की तलवार की चमक देखी थी। उन्हें वही घटना फिर याद आ गई।

सारन्धा ने उच्च स्वर से कहा– खाँ साहब! बड़ी लज्जा की बात है कि आपने वह वीरता जो चम्बल के तट पर दिखानी चाहिये थी आज एक अबोध बालक के सम्मुख दिखाई है। क्या वह उचित था आप उससे घोड़ा छीन लेते?

वलीबहादुरखाँ की आँखों से अग्नि-ज्वाला निकल रही थी। वे कड़ी आवाज से बोले-किसी गैर को क्या मजाल है कि मेरी चीज अपने काम में लाये?

रानी-वह आपकी चीज नहीं मेरी है। मैंने उसे रण-भूमि में पाया है। और उस पर मेरा अधिकार है। क्या रणनीति की इतनी मोटी बात भी आप नहीं जानते?

खाँ साहब-वह घोड़ा मैं नहीं दे सकता, उसके बदले में सारा अस्तबल आपको नजर है।

रानी-मैं अपना घोड़ा लूँगी।

खाँ साहब-मैं उसके बराबर जवाहरात दे सकता हूँ; परन्तु घोड़ा नहीं दे सकता।

रानी-तो फिर इसका निश्चय तलवार से होगा।

बुन्देला-योद्धाओं ने तलवारें सैंत लीं और निकट था कि दरबार की भूमि रक्त से प्लावित हो जाय कि बादशाह आलमगीर ने बीच में आकर कहा– रानी साहबा! आप सिपाहियों को रोकें घोड़ा आपको मिल जायगा; परन्तु उसका मूल्य बहुत देना पड़ेगा।

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