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गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8446
आईएसबीएन :978-1-61301-064

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गल्प-लेखन-कला की विशद रूप से व्याख्या करना हमारा तात्पर्य नहीं। संक्षिप्त रूप से गल्प एक कविता है


चम्पतराय बोले सारन! देखो हमारा एक और वीर जमीन पर गिरा। शोक! जिस आपत्ति से यावज्जीवन डरता रहा, उसने इस अन्तिम समय आ घेरा। मेरी आँखों के सामने शत्रु तुम्हारे कोमल शरीर में हाथ लगायेंगे, और मैं जगह से हिल भी न सकूँगा। मृत्यु तू कब आयेगी! यह कहते-कहते उन्हें एक विचार आया। तलवार की तरफ हाथ बढ़ाया; मगर हाथों में दम न था। तब सारन्धा से बोले-प्रिये! तुमने कितने ही अवसर पर मेरी आन निभाई है।

इतना सुनते ही सारन्धा के मुरझाये हुए मुख पर लाली दौड़ गई, आँसू सूख गये। इस आशा ने कि मैं अब भी पति के कुछ काम आ सकती हूँ। उसके हृदय में बल का संचार कर दिया। वह राजा की ओर विश्वासोत्पादक भाव से देखकर बोली-ईश्वर ने चाहा, तो मरते दम तक निबाहूँगी!

रानी ने समझा, राजा मुझे प्राण दे देने का संकेत कर रहे हैं?

चम्पतराय–तुमने मेरी बात कभी नहीं टाली।

सारन्धा–मरते दम तक न टालूँगी।

राजा-यह मेरी अन्तिम याचना है। इसे अस्वीकार न करना।

सारन्धा ने तलवार अपने वक्षस्थल पर रख लिया और कहा– यह आप की आज्ञा नहीं है, मेरी हार्दिक अभिलाषा है कि मरूँ तो यह मस्तक आपके पदकमलों पर हो।

चम्पतराय-तुमने मेरा मतलब नहीं समझा। क्या तुम मुझे इसलिए शत्रुओं के हाथ में छोड़ जायोगी कि मैं बेड़ियाँ पहने हुए दिल्ली की गलियों में निन्दा का पात्र बनूँ?

रानी ने जिज्ञासा-दृष्टि से राजा को देखा। वह उनका मतलब न समझी।

राजा–मैं तुमसे एक वरदान माँगता हूँ।

रानी–सहर्ष माँगिये।

राजा–यह मेरी अन्तिम प्रार्थना है। जो कहूँगा, करोगी?

रानी-सिर के बल करूँगी।

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