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गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8446
आईएसबीएन :978-1-61301-064

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गल्प-लेखन-कला की विशद रूप से व्याख्या करना हमारा तात्पर्य नहीं। संक्षिप्त रूप से गल्प एक कविता है


मध्याह्न था। सूर्यनारायण सिर पर आकर अग्नि की वर्षा कर रहे थे।

शरीर को झुलसाने वाली प्रचण्ड, वायु, वन पर्वतों में आग लगाती फिरती थी। ऐसा विदित होता था। मानो अग्निदेव की समस्त सेना गरजती हुई चल आ रही है। गगन-मण्डल इस भय से काँप रहा था। सारन्धा घोड़े पर सवार,चम्पतराय को लिए, पच्छिम की तरफ चली जाती थी। ओरछा दस कोस पीछे छूट चुका था, और यह अनुमान स्थिर होता था कि अब हम भय के क्षेत्र से बाहर निकल आये। राजा पालकी में अचेत पड़े हुए थे और कहार पसीने में सराबोर थे। पालकी के पीछे पाँच सवार घोड़ा बढ़ाये चले आते थे, प्यास के मारे सबका बुरा हाल था। तालू सूखा जाता था। किसी वृक्ष की छाँह और कुएँ की तलाश में आँखें चारों ओर दौड़ रही थीं। अचानरक सारन्धा ने पीछे की तरफ फिरकर देखा, तो उसे सवारों का एक दल आता हुआ दिखाई दिया! उसका माथा ठनका कि अब कुशल नहीं है। ये लोग अवश्य हमारे शत्रु हैं। फिर विचार हुआ कि शायद मेरे राजकुमार अपने आदमियों को लिए सहायता को आ रहे हैं। नैराश्य में भी आशा साथ नहीं छोड़ती। कई मिनट तक वह इसी आशा और भय की व्यवस्था में रही। यहाँ तक कि वह दल निकट आ गया और सिपाहियों के वस्त्र साफ नजर आने लगे। रानी ने एक ठण्डी साँस ली, शरीर तृणवत काँपने लगा। यह बादशाही सेना के लोग थे।

सारन्धा ने कहारों से कहा– डोली रोक लो बुन्देला सिपाहियों ने भी तलवारें खींच लीं। राजा की अवस्था बहुत शोचनीय थी; किन्तु जैसे दबी हुई आग हवा लगते ही प्रदीप्त हो जाती है, उसी प्रकार इस संकट का ज्ञान होते ही उसके जर्जर शरीर में वीरात्मा चमक उठी। वे पालकी का पर्दा उठा कर बाहर निकल आए। धनुष-बाण हाथ में उठा लिया; किन्तु उस धनुष जो उनके हाथ में इन्द्र का वज्र बन जाता था, इस समय जरा भी न झुका। सिर में चक्कर आया, पैर थर्राये और वे धरती पर गिर पड़े। भावी अमंगल की सूचना मिल गई, उस पंख-रहित पक्षी के सदृश, जो साँप को अपनी तरफ आते देखकर ऊपर को उचकता और फिर गिर पड़ता है। राजा चम्पतराय फिर सँभलकर उठे और फिर गिर पड़े। सारन्धा ने सँभालकर बैठाया और रोकर बोलने की चेष्टा की, मुँह से केवल इतना ही निकला-प्राणनाथ- इसके आगे उसके मुँह से एक शब्द भी न निकल सका। आन पर मरने-वाली सारन्धा इस समय साधारण स्त्रियों की भाँति शक्तिहीन हो गई; लेकिन एक अंश तक यह निर्बलता स्त्री जाति की शोभा है।

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