उपन्यास >> गोदान’ (उपन्यास) गोदान’ (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘गोदान’ प्रेमचन्द का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपन्यास है। इसमें ग्रामीण समाज के अतिरिक्त नगरों के समाज और उनकी समस्याओं का उन्होंने बहुत मार्मिक चित्रण किया है।
शाम को उसके पेट में दर्द होने लगा। समझ गयी विपत्ति की घड़ी आ पहुँची। पेट को एक हाथ से पकड़े हुए पसीने से तर उसने चूल्हा जलाया, खिचड़ी डाली और दर्द से व्याकुल होकर वहीं जमीन पर लेट रही। कोई दस बजे रात को गोबर आया, ताड़ी की दुर्गन्ध उड़ाता हुआ। लटपटाती हुई जबान से ऊटपटाँग बक रहा था–मुझे किसी की परवाह नहीं है। जिसे सौ दफे गरज हो रहे, नहीं चला जाय। मैं किसी का ताव नहीं सह सकता। अपने माँ-बाप का ताव नहीं सहा, जिसने जनम दिया। तब दूसरों का ताव क्यों सहूँ। जमादार आँखें दिखाता है। यहाँ किसी की धौंस सहनेवाले नहीं हैं। लोगों ने पकड़ न लिया होता, तो खून पी जाता, खून! कल देखूँगा बचा को। फाँसी ही तो होगी। दिखा दूँगा कि मर्द कैसे मरते हैं। हँसता हुआ अकड़ता हुआ, मूँछों पर ताव देता हुआ फाँसी के तख़्ते पर जाऊँ, तो सही। औरत की जात! कितनी बेवफा होती है। खिचड़ी डाल दी और टाँग पसारकर सो रही। कोई खाय या न खाय, उसकी बला से। आप मजे से फुलके उड़ाती है, मेरे लिए खिचड़ी! सता ले जितना सताते बने; तुझे भगवान् सतायेंगे जो न्याय करते हैं।
उसने झुनिया को जगाया नहीं। कुछ बोला भी नहीं। चुपके से खिचड़ी थाली में निकाली और दो-चार कौर निगलकर बरामदे में लेट रहा। पिछले पहर उसे सर्दी लगी। कोठरी में कम्बल लेने गया तो झुनिया के कराहने की आवाज सुनी। नशा उतर चुका था। पूछा–कैसा जी है झुनिया! कहीं दरद है क्या?
‘हाँ, पेट में जोर से दरद हो रहा है।’
‘तूने पहले क्यों नहीं कहा। अब इस बखत कहाँ जाऊँ?’
‘किससे कहती?’
‘मैं क्या मर गया था?’
‘तुम्हें मेरे मरने-जीने की क्या चिन्ता?’
गोबर घबराया, कहाँ दाई खोजने जाय? इस वक्त वह आने ही क्यों लगी। घर में कुछ है भी तो नहीं, चुड़ैल ने पहले बता दिया होता तो किसी से दो-चार रुपए माँग लाता। इन्हीं हाथों में सौ-पचास रुपए हरदम पड़े रहते थे, चार आदमी खुशामद करते थे। इस कुलच्छनी के आते ही जैसे लक्ष्मी रूठ गयी। टके-टके को मुहताज हो गया।
सहसा किसी ने पुकारा–यह क्या तुम्हारी घरवाली कराह रही है? दर्द तो नहीं हो रहा है?
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