उपन्यास >> गोदान’ (उपन्यास) गोदान’ (उपन्यास)प्रेमचन्द
|
54 पाठक हैं |
‘गोदान’ प्रेमचन्द का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपन्यास है। इसमें ग्रामीण समाज के अतिरिक्त नगरों के समाज और उनकी समस्याओं का उन्होंने बहुत मार्मिक चित्रण किया है।
यह वही मोटी औरत थी जिससे आज झुनिया की बातचीत हुई थी, घोड़े को दाना खिलाने उठी थी। झुनिया का कराहना सुनकर पूछने आ गयी थी।
गोबर ने बरामदे में जाकर कहा–पेट में दर्द है। छटपटा रही है। यहाँ कोई दाई मिलेगी?
‘वह तो मैं आज उसे देखकर ही समझ गयी थी। दाई कच्ची सराय में रहती है। लपककर बुला लाओ। कहना, जल्दी चल। तब तक मैं यहीं बैठी हूँ।’
‘मैंने तो कच्ची सराय नहीं देखी, किधर है?’
‘अच्छा तुम उसे पंखा झलते रहो, मैं बुलाये लाती हूँ। यही कहते हैं, अनाड़ी आदमी किसी काम का नहीं। पूरा पेट और दाई की खबर नहीं।’
यह कहती हुई वह चल दी। इसके मुँह पर तो लोग इसे चुहिया कहते हैं, यही इसका नाम था; लेकिन पीठ पीछे मोटल्ली कहा करते थे। किसी को मोटल्ली कहते सुन लेती थी, तो उसके सात पुरखों तक चढ़ जाती थी। गोबर को बैठे दस मिनट भी न हुए होंगे कि वह लौट आयी और बोली–अब संसार में गरीबों का कैसे निबाह होगा! राँड़ कहती है, पाँच रुपए लूँगी–तब चलूँगी। और आठ आने रोज। बारहवें दिन एक साड़ी। मैंने कहा तेरा मुँह झुलस दूँ। तू जा चूल्हे में! मैं देख लूँगी। बारह बच्चों की माँ यों ही नहीं हो गयी हूँ। तुम बाहर आ जाओ गोबरधन, मैं सब कर लूँगी। बखत पड़ने पर आदमी ही आदमी के काम आता है। चार बच्चे जना लिए तो दाई बन बैठी!
वह झुनिया के पास जा बैठी और उसका सिर अपनी जाँघ पर रखकर उसका पेट सहलाती हुई बोली–मैं तो आज तुझे देखते ही समझ गयी थी। सच पूछो, तो इसी धड़के में आज मुझे नींद नहीं आयी। यहाँ तेरा कौन सगा बैठा है।
झुनिया ने दर्द से दाँत जमाकर ‘सी ‘करते हुए कहा–अब न बचूँगी दीदी! हाय! मैं तो भगवान् से माँगने न गयी थी। एक को पाला-पोसा। उसे तुमने छीन लिया, तो फिर इसका कौन काम था। मैं मर जाऊँ माता, तो तुम बच्चे पर दया करना। उसे पाल-पोस लेना। भगवान् तुम्हारा भला करेंगे।
चुहिया स्नेह से उसके केश सुलझाती हुई बोली–धीरज धर बेटी, धीरज धर। अभी छन-भर में कष्ट कटा जाता है। तूने भी तो जैसे चुप्पी साध ली थी। इसमें किस बात की लाज! मुझसे बता दिया होता, तो मैं मौलवी साहब के पास से तावीज ला देती। वही मिर्ज़ाजी जो इस हाते में रहते हैं।
|