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उपन्यास >> गोदान’ (उपन्यास)

गोदान’ (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :758
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8458
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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‘गोदान’ प्रेमचन्द का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपन्यास है। इसमें ग्रामीण समाज के अतिरिक्त नगरों के समाज और उनकी समस्याओं का उन्होंने बहुत मार्मिक चित्रण किया है।


मगर चिमनी के पास यह धुआँ कहाँ से उठ रहा है। देखते-देखते सारा आकाश वैलून की भाँति धुएँ से भर गया। सबों ने सशंक होकर उधर देखा। कहीं आग तो नहीं लग गयी? आग ही मालूम होती है।

सहसा सामने सड़क पर हजारों आदमी मिल की तरफ दौड़े जाते नजर आये। खन्ना ने खड़े होकर जोर से पूछा–तुम लोग कहाँ दौड़े जा रहे हो?

एक आदमी ने रुककर कहा–अजी, शक्कर-मिल में आग लग गयी। आप देख नहीं रहे हैं?

खन्ना ने मेहता की ओर देखा और मेहता ने खन्ना की ओर। मालती दौड़ी हुई बँगले में गयी और अपने जूते पहन आयी। अफसोस और शिकायत करने का अवसर न था। किसी के मुँह से एक बात न निकली। खतरे में हमारी चेतना अन्तमुर्खी हो जाती है। खन्ना की कार खड़ी थी ही। तीनों आदमी घबड़ाये हुए आकर बैठे और मिल की तरफ भागे। चौरस्ते पर पहुँचे, तो देखा, सारा शहर मिल की ओर उमड़ा चला आ रहा है। आग में आदमियों को खींचने का जादू है। कार आगे न बढ़ सकी। मेहता ने पूछा–आग-बीमा तो करा लिया था न?

खन्ना ने लम्बी साँस खींचकर कहा–कहाँ भाई, अभी तो लिखा-पढ़ी हो रही थी। क्या जानता था, यह आफत आनेवाली है।

कार वहीं राम-आसरे छोड़ दी गयी और तीनों आदमी भीड़ चीरते हुए मिल के सामने जा पहुँचे। देखा तो अग्नि का एक सागर आकाश में उमड़ रहा था। अग्नि की उन्मत्त लहरें एक-पर-एक, दाँत पीसती थीं, जीभ लपलपाती थीं जैसे आकाश को भी निगल जायँगी, उस अग्नि-समुद्र के नीचे ऐसा धुआँ छाया था, मानो सावन की घटा कालिख में नहाकर नीचे उतर आयी हो। उसके ऊपर जैसे आग का थरथराता हुआ, उबलता हुआ हिमाचल खड़ा था। हाते में लाखों आदमियों की भीड़ थी, पुलिस भी थी, फायर ब्रिगेड भी, सेवा-समितियों के सेवक भी; पर सब-के-सब आग की भीषणता से मानो शिथिल हो गये हों। फायर ब्रिगेड के छींटे उस अग्नि-सागर में जाकर जैसे बुझ जाते थे। ईंटें जल रही थीं, लोहे के गार्डर जल रहे थे और पिघली हुई शक्कर के परनाले चारों तरफ बह रहे थे। और तो और, जमीन से भी ज्वाला निकल रही थी।

दूर से मेहता और खन्ना को यह आश्चर्य हो रहा था कि इतने आदमी खड़े तमाशा क्यों देख रहे हैं, आग बुझाने में मदद क्यों नहीं करते; मगर अब इन्हें भी ज्ञात हुआ कि तमाशा देखने के सिवा और कुछ करना अपने वश से बाहर है। मिल की दीवारों से पचास गज के अन्दर जाना जान-जोखिम था। ईट और पत्थर के टुकड़े चटाक-चटाक टूटकर उछल रहे थे। कभी-कभी हवा का रुख इधर हो जाता था, तो भगदड़ पड़ जाती थी।

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