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उपन्यास >> गोदान’ (उपन्यास)

गोदान’ (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :758
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8458
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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‘गोदान’ प्रेमचन्द का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपन्यास है। इसमें ग्रामीण समाज के अतिरिक्त नगरों के समाज और उनकी समस्याओं का उन्होंने बहुत मार्मिक चित्रण किया है।


सिलिया ने हिकारत के साथ कहा–बिरादरी में क्यों न लेंगे; हाँ, बूढ़ा रुपए नहीं खरच करना चाहता। इसको पैसा मिल जाय, तो झूठी गंगा उठा ले। लड़का आजकल बाहर ओसारे में टिक्कड़ लगाता है।

‘तू इसे छोड़ क्यों नहीं देती? अपनी बिरादरी में किसी के साथ बैठ जा और आराम से रह। वह तेरा अपमान तो न करेगा।’

‘हाँ रे, क्यों नहीं, मेरे पीछे उस बेचारे की इतनी दुर्दशा हुई, अब मैं उसे छोड़ दूँ। अब वह चाहे पण्डित बन जाय चाहे देवता बन जाय, मेरे लिए तो वही मतई है, जो मेरे पैरों पर सिर रगड़ा करता था; और बाह्मण भी हो जाय और बाह्मणी से ब्याह भी कर ले, फिर भी जितनी उसकी सेवा मैंने की है, वह कोई बाह्मणी क्या करेगी। अभी मान-मरजाद के मोह में वह चाहे मुझे छोड़ दे; लेकिन देख लेना, फिर दौड़ा आयेगा।’

‘आ चुका अब। तुझे पा जाय तो कच्चा ही खा जाय।’

‘तो उसे बुलाने ही कौन जाता है। अपना-अपना धरम अपने-अपने साथ है। वह अपना धरम तोड़ रहा है, तो मैं अपना धरम क्यों तोड़ूँ।’

प्रातःकाल सिलिया सोनारी की ओर चली; लेकिन होरी ने रोक लिया। धनिया के सिर में दर्द था। उसकी जगह क्यारियों को बराना था। सिलिया इनकार न कर सकी। यहाँ से जब दोपहर को छुट्टी मिली तो वह सोनारी चली।

इधर तीसरे पहर होरी फिर कुएँ पर चला तो सिलिया का पता न था। बिगड़कर बोला–सिलिया कहाँ उड़ गई? रहती है, रहती है, न जाने किधर चल देती है, जैसे किसी काम में जी ही नहीं लगता। तू जानती है सोना, कहाँ गयी है?  

सोना ने बहाना किया। मुझे तो कुछ मालूम नहीं। कहती थी, धोबिन के घर कपड़े लेने जाना है, वहीं चली गयी होगी। धनिया ने खाट से उठकर कहा–चलो, मैं क्यारी बराये देती हूँ। कौन उसे मजूरी देते हो जो उसे बिगड़ रहे हो।

‘हमारे घर में रहती नहीं है?  उसके पीछे सारे गाँव में बदनाम नहीं हो रहे हैं?’

‘अच्छा, रहने दो, एक कोने में पड़ी हुई है, तो उससे किराया लोगे?’

‘एक कोने में नहीं पड़ी हुई है, एक पूरी कोठरी लिये हुए है।’

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